कुछ दिन पहले तक भारत भी शेष विश्व के साथ फुटबाल विश्व कप के रंग में रंगा था लेकिन अब एक बार फिर से अपनी कुआदत पर उतर आया है। चार साल में आयोजित होने वाले फुटबाल महाकुंभ में पूर्णाहुति देने के बाद भारतीय प्रचार माध्यम, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने फिर से क्रिकेट का गीदड़ पट्टा ओढ़ लिया है। हालांकि सोशल मीडिया अब भी मैसी, एंबापे और अन्य स्टार खिलाड़ियों के स्तुतिगान में लगा है लेकिन प्रिंट मीडिया को जैसे फुटबाल से कोई लेना देना नहीं है। यह हाल तब है जबकि देश में संतोष ट्राफी राष्ट्रीय फुटबाल चैंपियनशिप का आयोजन किया जा रहा है।
दिल्ली के नेहरू और अंबेडकर स्टेडियम मैदानों पर संतोष ट्राफी के मैच खेले जा रहे है, जिनमें देश के भावी खिलाड़ी भाग ले रहे हैं। हैरानी वाली बात यह है की लगभग डेढ़ महीने तक फीफा कप के पागलपन में डूबे भारतीय मीडिया को अपनी राष्ट्रीय फुटबाल चैंपियनशिप से जैसे कोई लेना देना नहीं है। हो सकता है उसे चीन में फैल रहे कोरोना को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने और बेवजह झक मारने से फुरसत नहीं मिल रही होगी। लेकिन फीफा कप में फुटबाल ज्ञान बघारने वालों का फुटबाल प्रेम अब कहां गया?
बेशक, हमारे मीडिया का फुटबाल प्रेम सिर्फ दिखावा और छलावा है। वह जानता है कि भारतीय फुटबाल की कोई हैसियत नहीं है और हम सिर्फ पागलपन के चलते फुटबाल को चाहते हैं । लेकिन देश के बड़बोले और भटके हुए टीवी चैनलों एवम समाचार पत्र पत्रिकाओं को चूंकि मेस्सी, एम्बापे , रोनाल्डो और अन्य सितारों की आड़ में लाखों के विज्ञापन मिलते हैं इसलिए उनका फुटबाल प्रेम हिलोरें मारने लगता है। यह सब उसे संतोष ट्राफी जैसे दोयम दर्जे के आयोजन से तो नहीं मिलने वाला। लेकिन गली कूचे के क्रिकेट आयोजनों को हमारे पत्र पत्रिकाएं क्यों प्रमुखता से जगह देते हैं, यह सवाल भी अक्सर पूछा जाता है?
सिर्फ फुटबाल ही नहीं हॉकी, एथलेटिक, कुश्ती, बैडमिंटन, तैराकी, बास्केटबाल और तमाम खेल भारतीय मीडिया की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। सभी मीडिया के सौतेले व्यवहार से परेशान हैं। इन खेलों की याद तब आती है जब ओलंपिक जैसे बड़े आयोजन होते हैं। अर्थात चार साल बाद ही फुटबाल और ओलंपिक भारतीय मीडिया को याद आते है।
जो लोग भारतीय खेलों और खासकर फुटबाल के पिछड़ेपन के कारण जानना चाहते हैं उन्हें पता चल गया होगा की क्रिकेट की जूठन चाटने वाला मीडिया फुटबाल का सगा कदापि नहीं हो सकता। जो दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल की राष्ट्रीय चैंपियनशिप का सगा नहीं हुआ, उससे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती। बेहतर होगा खेलों के हित की बात करने वाली और भारत को खेल महाशक्ति बनाने का दावा करने वाली सरकारें इस ओर ध्यान दें।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |