ग्रासरूट से विदेशी कोचों की नियुक्ति कैसी रहेगी ?

Why not foreign coach from grassroots

लगभग पचास सालों तक गलत राह पर चल रही भारतीय फुटबाल ने यकायक दौड़ने का मन बनाया है । जो फुटबाल 1970 के बाद से मृतवत पड़ी थी उसने कुलाचें भरना शुरू कर दिया है । देश में फुटबाल को बर्बाद करने वाली अखिलभारतीय फुटबाल फेडरेशन (एआईएफएफ) को शायद कोई जादू की छड़ी मिल गई है जिसे घुमा कर उसने भारतीय फुटबाल के लिए 2047 में वर्ल्ड कप खेलने का टारगेट भी सेट कर दिया है । यदि सचमुच ऐसा है तो आम भारतीय को ख़ुशी मनानी चाहिए , क्योंकि फुटबाल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल है ।

फिलहाल भारतीय फुटबाल में बहुतकुछ बदलाव हो रहा है ।मसलन छोटी उम्र के बच्चों को फुटबाल के गुर सिखाए जा रहे हैं और आईएसएल , आई लीग , खेलों इंडिया , राष्ट्रीय स्कूली खेल और छोटी आयु वर्ग के ढेरों आयोजन शुरू हो चुके हैं । इस दौड़ में दिल्ली, बंगाल , गोवा , महाराष्ट्र , केरल , आंध्र प्रदेश आदि राज्यों की फुटबाल इकाइयों में होड़ शुरू हो चुकी है । पर्तिस्पर्धा और आगे बढ़ने की होड़ को देश में फुटबाल के लिए शुभलक्षण कहा जा सकता है । गली मोहल्लों , पार्कों और जहां कहीं जगह मिलती है फुटबाल खेली जा रही है । खिलाडियों को सिखाने पढ़ाने के लिए छुट पुट अकादमियां भी खुल रही हैँ , जिनमें सिखाने पढ़ाने वाले ज्यादातर कोच ऐसे हैं , जोकि शायद ही कभी फुटबॉलर रहे हों। ज्यादातर तिकड़में लड़ा कर लाइसेंस और डिग्री डिप्लोमे पाने में सफल रहे ।

सवाल यह पैदा होता है कि जिसने कभी गंभीरता से फुटबाल या कोई अन्य खेल नहीं खेला , वह सफल कोच कैसे बन सकता है ? वह भावी पीढ़ी को क्या सिखाएगा और उसके सिखाए पढ़ाए किस स्तर
के खिलाडी बनेंगे ? इस जंगलराज के बारे में जब जाने माने पूर्व कोचों और खिलाडियों से बात की गई
तो ज्यादातर ने माना कि अपने देश में फुटबाल को सीधे सीधे दो भागों में बाँट दिया गया है । पहला हिस्सा बहुत बड़ा है जोकि ग्रासरूट से शुरू होकर स्कूल , कालेज , राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों तक जाता है । इसके बाद छोटी लाइन की पटरी पर चलकर भारतीय फुटबाल की रेल अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में दाखिल होती है । पहले बड़े हिस्से का जिम्मा हमारे अपने कोचों के हवाले होता है और छोटी पटरी पर चलने वाली ट्रेन किसी गोरे विदेशी को सौंप दी जाती है।

वाकई मामला गंभीर है । जब पौधा पेड़ बन जाता है तो उसे कितने भी अनुभवी और हुनरमंद माली के हवाले कर दिया जाए उसकी दिशा दशा को बदलना आसान नहीं होता । ठीक इसी प्रकार अपने कोचों द्वारा तैयार किए गए आधे अधूरे खिलाडी चैम्पियन नहीं बन सकते । हैरानी वाली बात यह है कि खिलाडी को दस पंद्रह साल अपने कोच सिखाते हैं और जैसे ही उसे सीनियर राष्ट्रीय टीम में जगह मिलती है उसका मास्टर बदल जाता है । अनेक विदेशी आए गए लेकिन कोई भी भारतीय फुटबाल की बीमारी का इलाज नहीं कर पाया । करोड़ों -अरबों खर्च करने के बाद भी भारतीय फुटबाल बेजान पड़ी है । फुटबाल के जानकार और विशेषज्ञ कहते हैं कि कुछ सालों तक भारतीय फुटबाल को शुरू से ही विदेशी कोचों के हवाले क्यों न कर दिया जाए । वही एबीसी दिखाएं तो बेहतर रहेगा। एक बार कोशिश करने में कोई बुराई भी नहीं है । सौदा महंगा जरूर है लेकिन घाटे का नहीं होगा ।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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