भारतीय हॉकी टीम के हेड कोच ग्राहम रीड और उनके सपोर्ट स्टाफ ने इस्तीफ़ा देकर भारतीय हॉकी पर बड़ा अहसान किया है लेकिन फ्लॉप शो के खिलंदड़ों का क्या होगा ? क्या उन्हें जारी रखने और कुछ और अपमान बटोरने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहेगा ? कुछ पूर्व खिलाडी और हॉकी प्रेमी यह जानना चाह रहे हैं । विदेशी कोच का आना , बड़े बड़े दावे करना और जाते समय माफ़ी माँगने का चलन भारत की हॉकी में नया नहीं है । ना जाने कितने विदेशी आए और गए लेकिन कोई भी भारतीय हॉकी के लगातार पतन को रोक नहीं पाया है ।
भारतीय हॉकी को बर्बाद करने वाली हॉकी इंडिया और विदेशी कोचों को गले लगाने वाला हमारा खेल मंत्रालय यदि आलोचना से बचना चाहें तो ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि उनकी भूमिका में भी कहीं न कहीं चूक नज़र आती है । जहाँ तक हॉकी इंडिया की बात है तो आज तक यह पता नहीं चल पाया है कि देश में हॉकी को संचालित करने वाली इस इकाई का माई बाप कौन है! बेचारे दिलीप टिर्की ने तो हाल फिलहाल ही सत्ता संभाली है| रहा खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण तो उनसे यह पूछा जा सकता है कि जब विदेशी कोच भारतीय हॉकी का रोग नहीं समझ पा रहे तो निदान कैसे खोज सकते हैं? उन्हें बार बार बुलाना और उन पर करोड़ों लुटाना कहाँ तक ठीक है ?
जहां तक विदेशी कोचों की बात है तो उनकी अगुवाई में भारतीय खिलाडी विदेशी दौरों पर व्यस्त रहते हैं, जहाँ दोयम दर्जे की टीमों से जीतने के बाद ऐसा माहौल बनाया जाता है जैसे की भारत विश्व विजेता बनने की राह पर चल निकला है। 2019 में रीड की टीम ने बेल्जियम और स्पेन को उनके घर पर बुरी तरह हराया । दो साल बाद यूरोप के टूर पर जर्मनी और ब्रिटैन से श्रृंखला जीती और अर्जेंटीना को भी छकाया । लेकिन एशियन चैम्पियनशिप और कॉमनवेल्थ खेलों में हेंकड़ी निकल गई । एशियन चैम्पियनशिप में कांसा ही मिला जबकि कॉमनवेल्थ में ऑस्ट्रेलिया ने बुरी तरह रौंद डाला था।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तमाम देश विदेश दौरों और दोस्ताना मैचों में अपने नए खिलाडियों को आजमाते हैंजबकि हम अपने बूढ़े और थके हारे खिलाडियों को उतारकर वाह वाह लूटने की नीयत रखते हैं । यही कारण है कि आम भारतीय खिलाडी चौथे क्वार्टर में हांफ़ने लगता है । देश के कुछ द्रोणाचार्य अवार्डियों के अनुसार बड़ी उम्र के खिलाडी कोच और सपोर्ट स्टाफ से दोस्ती गाँठ कर टीम पर बोझ बने रहते हैं। ऐसे खिलाडियों को तुरंत बाहर का रास्ता दिखाना जरुरी है ।
देश में हॉकी के जो थोड़े बहुत जानकार बचे हैं उन्होंने यह तो देख ही लिया होगा कि विश्व विजेता जर्मनी, उपविजेता बेल्जियम , नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया के मुकाबले भारतीय हॉकी बहुत पीछे छूट गई है और इस अंतर को भरने में सालों लग सकते हैं। विदेशी कोच , उसका सपोर्ट स्टाफ और विदेशी सीईओ
निरर्थक साबित हुए हैं । आगे क्या करना है, खेल मंत्रालय , हॉकी एक्सपर्ट्स ,हॉकी इंडिया और उनके मुंह लगे मीडिया को तय करना है ।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |