पिछले चालीस पचास सालों में भारतीय हॉकी में ऐसा कोई बड़ा परिवर्तन देखने को नहीं मिला जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि विदेशी कोचों की सेवाएं लेने और करोड़ों खर्च करने के बाद भारतीय हॉकी में बड़ी क्रांति आ गई हो! देश के जाने माने पूर्व कोच ओलम्पियन, खिलाडी और हॉकी के तथाकथित पंडित तो यहां तक कहने लगे हैं कि अब विदेशी को बाय बाय कर अपने कोचों को फिर से आजमाने का वक्त आ गया है।
हॉकी प्रेमी और पूर्व ओलम्पियन पूछ रहे हैं कि विदेशी कोचों के आने के बाद से हमने कौन से तीर चलाए हैं और कब और कहाँ भारतीय हॉकी ने मैदान मारे है। कुछ एक की राय में विदेशी यदि फिटनेस के लिए अनुबंधित किए जाएं और अपने खिलाडियों को सिखाने पढ़ाने का काम स्वदेशी कोचों को सौंपा जाए तो बेहतर रहेगा। हो सकता है कि हॉकी इंडिया और भारतीय खेल प्राधिकरण को यह सुझाव मंजूर न हो लेकिन कई साल और पैसा बर्बाद करने के बाद अब अपने कोचों को आजमाने का वक्त आ गया है। उनके साथ विदेशी फिटनेस एक्सपर्ट्स नियुक्त किए जा सकते हैं लेकिन महंगे चीफ कोच इसलिए ठीक नहीं क्योंकि उनके रहते कॉमनवेल्थ जैसा दोयम दर्जे का खिताब तक नहीं जीत पाए हैं
कॉमनवेल्थ खेलों में हॉकी के स्तर की बात करें तो इन खेलों में वर्ल्ड कप और ओलम्पिक हॉकी जैसा संघर्ष देखने को नहीं मिलता| इसलिए क्योंकि इस खेल में बड़ी ताकत माने जाने वाले आधे से अधिक देश कॉमनवेल्थ के सदस्य नहीं है। भारत के आलावा ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, पकिस्तान और न्यूजीलैंड और कुछ हद तक कनाडा एवं दक्षिण अफ्रीका की टीमें चुनौती दे पाती हैं। एशियाई देशों में जापान, कोरिया और चीन खेलों का हिस्सा नहीं हैं। अर्थात ऑस्ट्रेलिया ही एकमात्र बड़ा प्रतिद्वंद्वी है, जिसे हरा पाना भारतीय हॉकी के लिए आसान काम नहीं है। वही ऑस्ट्रेलिआ जिसने अनेकों बार भारतीय टीम को बुरी तरह पीटा है। अपने कोछोङकी मांग करने वाले चाहते हैं कि यदि भारतीय टीमें इस बार भी कॉमनवेल्थ में स्वर्ण नहीं जीत पातीं तो भारतीय कोचों को कमान सौंपने का वक्त आ गया है।
यह न भूलें कि भारत ने एशियाड, ओलम्पिक और विश्व कप तब जीते जब खिलाडियों के सर पर अपने कोचों का हाथ था। महिलाओं ने 2002 के कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीता था , तब कोई विदेशी कोच नहीं था। शायद यह बात हॉकी के कर्णधारों और साई के बड़े अधिकारीयों को समझ नहीं आती। हैरानी वाली बात यह है कि दर्जनों द्रोणाचार्य पैदा करने वाली व्यवस्था में एक भी काबिल कोच नहीं बचा या जानबूझ कर अपने कोचों को बेकार करार दिया जा रहा है! नरेंद्र बत्रा के जाने के बाद अब कुछ कोच मुंह खोल रहे हैं लेकिन फिलहाल अपना नाम न छापने कि शर्त पर कहते हैं कि हॉकी इंडिया और साई अपने कोचों के दुश्मन हैं वे अपने कोचों को आगे नहीं आने देना चाहते। यदि ऐसा है तो मामला गंभीर है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |