पिछले कुछ सालों में क्रिकेट और अन्य भारतीय खेलों के बीच का मनमुटाव कुछ हल्का पड़ गया है। यूं भी कह सकते हैं कि अन्य खेलों ने क्रिकेट के सामने हथियार डाल दिए हैं। इसलिए क्योंकि क्रिकेट से लड़ना-भिड़ना उनके बूते की बात नहीं रही। सच्चाई यह है कि जो खेल 10-20 साल पहले तक अपनी नाकामी को क्रिकेट के एकाधिकार के आईने से देखते थे उनकी बोलती बंद हो चुकी है। हॉकी, फुटबॉल, एथलेटिक्स, कुश्ती, मुक्केबाजी, तैराकी, बैडमिंटन और तमाम खेलों ने देख-समझ लिया है कि क्रिकेट से टकराना उनके बूते की बात नहीं है। नतीजन सभी की बोलती बंद है।
दूसरी तरफ क्रिकेट ने कभी भी बाकी खेलों को पलट कर जवाब नहीं दिया। वह अपनी मस्त चाल से आगे बढ़ता रहा और आज आलम यह है कि तमाम ओलम्पिक खेल मिलकर भी उसका मुकाबला नहीं कर सकते। इतना ही नहीं भारतीय क्रिकेटर आज गोरों का खेल कहे जाने वाले क्रिकेट का नेतृत्व कर रहा है। आईसीसी के शीर्ष पद पर भारतीय चेहरे चमचमा रहे हैं। सच तो यह है कि भारतीय क्रिकेट और बीसीसीआई के इशारे पर विश्व क्रिकेट ता-ता-थैया कर रही है। खिलाड़ी-अधिकारी, नीति-निर्माता सभी भारतीय क्रिकेट के महत्व को समझ चुके हैं। लेकिन बाकी भारतीय खेलों की हालत यह है कि देश के खेलों की शीर्ष इकाई इंडियन ओलम्पिक एसोसिएशन (आईओए) का सिंहासन डोल रहा है।
जिस आईओए पर देश के ओलम्पिक खेलों का दारोमदार टिका है उसका भ्रष्ट तंत्र सालों से बेलगाम है और अब तो तेजी से उफान लेने लगा है। दूसरी तरफ तमाम खेल फेडरेशन भ्रष्ट तंत्र के शिकार हैं। ज्यादातर की मान्यता या तो रद्द कर दी गई है या फिर खेल फेडरेशन मुखिया और अन्य पदाधिकारियों पर गंभीर आरोप है। ऐसे में देश में खेलों का विकास कैसे हो सकता है? नतीजन क्रिकेट उनसे बहुत आगे निकल गई है। लेकिन अब बाकी खेलों ने रोना-बिलखना छोड़ दिया है। शायद अन्य खेलों ने अपनी हार और नाकारापन स्वीकार कर लिया है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |