बीरू मल क्यों द्रोणाचार्य अवार्ड के हकदार हैं

Biri mal deserves Dronacharya

हॉकी जादूगर मेजर ध्यान चंद के जन्मदिन पर देश के श्रेष्ठ खिलाड़ियों और गुरुओं को सम्मानित करने की परंपरा का निर्वाह हर साल किया जाता है। द्रोणाचार्य , अर्जुन, खेल रत्न और ध्यान चंद पुरस्कार पाने वाले सम्मानितों में बहुत से ऐसे नाम भी शामिल हैं , जिनकी उपलब्धियों पर सवाल खड़े किए गए। दूसरी तरफ ऐसे भी हैं जिन्होंने ताउम्र कड़ी मेहनत की, खेल और खिलाड़ियों के प्रति समर्पित रहे लेकिन उन्हें कोई बड़ा सम्मान नहीं मिल पाया। ऐसे उपेक्षितों में एक नाम बीरू मल शर्मा का है, जिन्होंने भारतीय फुटबाल के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया लेकिन उन्हें कोई सम्मान नहीं मिल पाया ।

बीरूमल उन बिरले कोचों में रहे हैं जिन्होंने जमीनी स्तर पर काम किया और गुप चुप दुनिया से चले गए। एनआईएस पटियाला से लेकर देश विदेश में उनके काम को सराहा गया लेकिन देश की सरकारों और फुटबाल का कारोबार करने वालों ने कभी उनकी सुध नहीं ली। बिना शोर शराबे के उन्होंने अपनी फुटबाल यात्रा को आगे बढ़ाया, फुटबाल पर कई किताबें लिखीं, अनेकों खिलाड़ियों और कोचों को पाठ पढ़ाया लेकिन बदले में उन्हें कुछ भी नहीं मिला।

18 अगस्त को करनाल में उनका देहांत हुआ, जिसकी खबर तक नहीं छप पाई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बहुमुखी प्रतिभा के धनी बीरू मल शांत चित्त और दिखावे से दूर रहने वाले व्यक्तित्व थे। पब्लिसिटी से वे मीलों दूर रहे। पद और प्रतिष्ठा को कभी सिर माथे नहीं चढ़ने दिया। चूंकि ढिखावा और चापलूसी से दूर थे इसलिए सरकारों और भारतीय फुटबाल फेडरेशन ने उनकी काबिलियत को कभी महत्व नहीं दिया। नतीजन चुपचाप देह त्याग कर चले गए।

लेकिन बीरू मल होने के मायने तब पता चले जब उनके सैकड़ों शिस्यों ने देर सबेर उनकी खबर लेनी शुरू की। भले ही राष्ट्रीय मीडिया ने उनका हालचाल नहीं पूछा लेकिन इस पत्रकार द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के बाद उनके देह त्याग की खबर देश विदेश में फैल गई। उनके सैकड़ों शिष्यों के फ़ोन आने लगे। हर किसी की जुबान पर उनकी भलमनसाहत और फुटबाल ज्ञान के चर्चे थे। उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का था कि कोच साहब बिना किसी बड़े राष्ट्रीय सम्मान के चले गए। बेशक, चुपचाप रहने और और गंभीरता से अपने काम को अंजाम देने की उन्हें सजा मिली।

बीरू मल के शिष्यों के अनुसार उन्हें खेल और लेखन के अलावा और कुछ नहीं सूझता था। लेकिन काबिलियत और उपलब्धियों के हिसाब से उन्हें सालों पहले द्रोणाचार्य अवार्ड मिल जाना चाहिए था। उनके द्वारा प्रशिक्षित खिलाड़ी और कोचों ने देर से ही सही, उन्हें मरणोपरांत द्रोणाचार्य अवार्ड देने की मांग की है। ठीक वैसे ही जैसे मुक्केबाजी कोच हवा सिंह और एथलेटिक कोच आर गांधी को सम्मानित किया गया था।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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