आजाद भारत अपने साथ जहां एक तरफ बेशुमार मुश्किलें, दुख दर्द और बंटवारे की पीड़ा लेकर आया तो ओलंपिक में जीते हॉकी के तीन स्वर्ण पदक की यादें भी साथ थीं। तत्कालीन सरकार ने हॉकी के साथ साथ अन्य खेलों को बढ़ावा देने के लिए हर संभव प्रयास किए, जिसका ज्वलंत उदाहरण था 1951 के पहले एशियाई खेल । भारत ने आगे बढ़ कर महाद्वीप का सबसे बड़ा खेल आयोजन किया और खूब वाह वाह लूटी।
तत्कालीन सरकार ने खेलों का महत्व समझा और विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी विभागों में खिलाड़ियों की भर्ती का सिलसिला चल निकला, जोकि कई सालों तक चला और सैकड़ों हजारों खिलाड़ियों को विभिन्न विभागों में रोजगार मिला। लेकिन पिछले कुछ सालों से खिलाड़ियों की भर्ती या तो रुक गई है या बहुत कम और चुनिंदा खिलाड़ी ही खेल कोटे द्वारा लाभान्वित हो रहे हैं।
एक ओर तो देश की सरकार खेलों को बढ़ावा दे रही है लेकिन दूसरी तरफ खिलाड़ियों की भर्ती या तो पूरी तरह ठप्प है या अंदर ही अंदर गड़बड़झाला चल रहा है। हाल ही में कुछ विभागों ने खिलाड़ियों की भर्ती के विज्ञापन निकाले, बहुत से खिलाड़ियों ने आवेदन किए लेकिन ज्यादातर ट्रायल देने और जरूरी प्रक्रिया पूरी करने के बाद भी नौकरी नहीं पा सके हैं।
पुलिस, सेना, एफसीआई, ऑडिट, बैंक, इनकम टैक्स, पोस्टल और कई बिजली विभागों द्वारा खिलाड़ियों को नौकरी देने का आश्वासन तो दिया गया लेकिन कुछ विभाग ही अपना वादा पूरा कर पाए हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि अधिकांश विभागों में ऊंची सिफारिश पहली प्राथमिकता बनी है, जिस कारण से काबिल प्रतिभाओं की अनदेखी की जा रही है।
भारतीय खेलों और खिलाड़ियों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि देश में रोजगार के अवसर लगातार कम होने का सबसे ज्यादा असर खेलों पर पड़ा है। 1982 के एशियाई खेलों के बाद विभिन्न मंत्रालयों और निजी और सार्वजनिक संस्थानों ने खेल कोटे के तहत पांच फीसदी पद खिलाड़ियों द्वारा भरे जाने के आदेश जारी किए थे जिनका अनुपालन कुछ सालों तक किया गया लेकिन आज कोटा और भर्ती शब्द खेल का हिस्सा कम ही रह गए हैं। प्राय वही खिलाड़ी नौकरी पा रहे हैं जोकि ओलंपिक और अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता हैं या ऊंची पहुंच वाले हैं। अफसोस इस बात का है कि विभिन्न विभागों में खेल कोटे की भर्ती निर्धारित समय पर नहीं हो रही। नतीजन बेरोजगार खिलाड़ी हैरान परेशान हैं।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |