उस दौर में जबकि भारतीय फुटबाल अपने पूरे उफान पर थी और विश्व एवम् ओलम्पिक स्तर पर हमें सम्मान प्राप्त था, भारतीय फुटबाल का शिखर पुरुष और कोई नहीं एक सच्चा और समर्पित मुसलमान था, जिसके गुरुत्व गुणों से भारत ने दो एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक जीते और ओलम्पिक में गजब का प्रदर्शन किया। 1951 और 1962 के एशियाई खेलों में भारत की जिस टीम ने महाद्वीप का विजेता होने का गौरव पाया था उसके कोच रहीम साहब थे। टीम खेलों में वह भारत के सर्वकलीन श्रेष्ठ कोच आँके जाते हैं।
अक्सर देखा गया है कि जब कभी भारतीय फुटबाल की दयनीय हालत की बात चलती है तो देश में कोचिंग सिस्टम को कोसा जाता है। कभी कभार फुटबाल फ़ेडरेशन को भी बुरा भला कहने का साहस दिखाया जाता है। लेकिन समस्या की असली वजह के बारे में कोई भी बात नहीं करना चाहता।
समस्या की जड़ तक जाएं तो भारतीय राष्ट्रीय फुटबाल के गठन पर गौर किया जा सकता है, जिसमें स्तरीय मुस्लिम और बंगाली खिलाड़ी लगातार कम हो रहे हैं। दूसरा उदाहरण दिल्ली की क्लब फुटबाल है, जहां मुस्लिम खिलाड़ी लगभग गायब से हो गए हैं। कोई भी यह जानने का प्रयास नहीं करता कि ऐसा क्यों हो रहा है। तीसरा उदाहरण उत्तराखंड का है जहां प्रदेश के खिलाड़ी दर दर भटक रहे हैं लेकिन उन्हें खेलने का मौका नसीब नहीं हो पा रहा।
पूर्व चैम्पियनों पर नज़र डालें तो सैयद अज़ीज़ुद्दीन, अब्दुल लतीफ, नूर मोहम्मद, अहमद ख़ान, अब्दुल रहीम, युसुफ ख़ान, एसएस हकीम, एस हामिद और दर्जनों अन्य मुस्लिम खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय फुटबाल में भारत की शान बढ़ाई। आंध्रा प्रदेश, बंगाल, और दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों के कई खिलाड़ी पीके बनर्जी, चुन्नी गोस्वामी, मेवालाल, अरुण घोष, जरनैल सिंह, बलराम और अन्य के साथ जम कर खेले और भारतीय फुटबाल का मान बढाने में बढ़ चढ़ कर योगदान दिया।
ऐसा नहीं है कि मुस्लिम खिलाड़ियों ने फुटबाल खेलना छोड़ दिया है या उनके साथ फुटबाल मैदान में किसी प्रकार का सौतेला व्यवहार हो रहा है। दिल्ली की फुटबाल के उदाहरण के साथ जानने का प्रयास करते हैं, क्योंकि दिल्ली के टाप क्लबों में कभी मुस्लिम खिलाड़ियों की बहुतायत थी। उनके साथ बंगाली और उत्तराखंडी मूल के गढ़वाली कुमांउनी खिलाड़ियों ने वर्षों तक राजधानी की फुटबाल में दबदबा कायम किया। लेकिन दिल्ली की फुटबाल अब दिल्ली की रही ही नहीं। अधिकांश क्लब पंजाब,हरयाणा,यूपी और बंगाल के आधे अधूरे खिलाड़ियों के दम पर चल रहे हैं .बाकी की कसर नाइजीरिया और कुछ अन्य देशों के अश्वेत खिलाड़ी पूरी कर रहे हैं। बाहरी और विदेशी खिलाड़ी भी ऐसे हैं जिन्होने फुटबॉल का पहला पाठ भी ठीक से नहीं पढ़ा है। कभी दिल्ली की शान रहे मुस्लिम खिलाड़ी लगभग गायब हो चुके हैं। यही हाल राष्ट्रीय टीम का देखा जा रहा है। आंध्रा ,कर्नाटका,बंगाल,यूपी और अन्य प्रदेशों से मुस्लिम खिलाड़ियों की खेप लगभग बंद हो चुकी है।
ज़्यादा वक्त नहीं हुआ जबमुगल्स,सिटी,यंगमैंन,नेशनल्स, यंग्स्टर, मूनलाइट आदि क्लब मुस्लिम खिलाड़ियों के खेल कौशल से चमचमाते थे। शिमलायंग्ज़,एंडी हीरोज और कुछ अन्य क्लब भी मुस्लिम खिलाड़ियों की सेवाएँ लेने मे पीछे नहीं थे। गढ़वाली-कुमाऊनी,और बंगाली खिलाड़ी भी खूब खेले .लेकिन बंगाली मूल के खिलाड़ी भी लगभग गायब होते जा रहे हैं और शिमलायंग ,गढ़वाल हीरोज,एन डी हीरोज और तमाम बड़े क्लबों की शान कहलाने वाले उत्तराखंडी खिलाड़ी भी अब कम ही मिल पा रहे हैं।
दिल्ली की फुटबॉल मे पैठ रखने वाले हिंदू-मुस्लिम क्ल्ब अधिकारी एक राय से मानते हैं क़ि मुस्लिम खिलाड़ियों का सिरे से गायब होना स्थानीय फुटबॉल के लिए बड़ा आघात है। इसी प्रकार भारतीय फुटबॉल को भी उनकी कमी खल रही है। लेकिन फुटबॉल फेडरेशन हो या उसकी तमाम इकाइयाँ, किसी को भी इस ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत नहीं है। कम से कम मुस्लिम समाज,अभिभावक,पूर्व खिलाड़ी और क्लब अधिकारी तो नींद से जागें।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |