खिलाड़ी बड़े कद के, लेकिन कितने बड़े नेता!

When champions become political giants

देश के बहुत से अवसरवादी खिलाडी भारतीय राजनीति में दाखिल हो चुके हैं। खेल ने उन्हें बहुत कुछ दिया लेकिन खेल को क्या वापस दे रहे हैं किसी को पता नहीं। इतना जरूर है की नेता, मंत्री बनने के बाद वे अपने साथी खिलाड़ियों को भाव नहीं देते। बल्कि देखने सुनने में तो यह आया है कि ज्यादातर ‘खिलाड़ी’ नाम के प्राणी से मिलना भी पसंद नहीं करते। अपनी औकात भूलने वाले कुछ ऐसे महाशयों के बारे में जब उनके संगी साथी और गुरु खलीफा अपना दर्द बयां करते हैं तो पता चल जाता है कि राजनीति कितना गंदा खेल है।

बेशक राजनीति की गंदगी से हर भारतवासी भली भांति परिचित है। जहां तक खिलाडी मतदाता की बात है तो वह कदापि जागरूक नहीं है। वह कभी भी यह जानने का प्रयास नहीं करता कि कौन सी पार्टी खेल और खिलाडियों के लिए हितकर है और कौन बार बार झूठे वादों से खिलाडी मतदाताओं को छल रहा है। उसे ‘खेल की राजनीति’ तो पता है लेकिन ‘राजनीति में खेल’ के लिए कोई जगह नहीं है, इस बात का जरा ही अहसास नहीं है। वह बार बार और लगातार देश के अवसरवादी राजनेताओं के हाथों छला जा रहा है।

हर चुनाव के चलते नेता आम नागरिकों को जम कर बेवकूफ बनाते हैं , उन्हें सब्जबाग़ दिखाते हैं पर चुनाव जीत जाने के बाद अपना कोई भी वादा पूरा नहीं करते। हैरानी वाली बात यह है की देश के तमाम राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में बहुत कुछ बोलते हैं लेकिन शायद ही कभी किसी दल या नेता ने देश के खिलाडियों और खेल मतदाताओं से खेल सुधार का कोई वादा किया हो। झूठों ही सही कभी कोई दल अपने घोषणा पत्र में खिलाड़ियों के हित की बात नहीं करता।

देश के नेता जानते हैं कि इस देश का खिलाडी भोला भाला है, उसे अपने अधिकारों का अता पता नहीं है। उसे तो बस खेलना है और देश के नाम पर अपने लिए पदक जीतने हैं। यह बात अलग है कि लाखों में से कुछ एक चतुर और ज्ञानी ध्यानी खिलाडी राजनीति की बोली भाषा पढ़ना जानते हैं। ऐसों में से कुछ एक नेता बन जाते हैं और फिर वही काम करते हैं जैसा उनके दल के माफिक होता है।

दूसरी तरफ अनेक ऐसे नेता मंत्री हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नहीं है लेकिन खेल संघों के पद हथियाकर वे देश के खिलाडियों की छाती में मूंग दलने का काम करते हैं। राजनीति के साथ साथ वे खेल की राजनीति में भी गंद फैलाते हैं। लेकिन बेचारा भारत का सीधा सच्चा खिलाडी मज़बूर है। उसे अपना और अपनों का पेट भरना है, उसे खेल और दैनिक उठा पटक से फुर्सत नहीं। उसे राजनीति की मार के साथ साथ अपने खिलाडी नेताओं की दुत्कार भी सहनी पड़ती है।

पिछले रिकार्ड उठा कर देखें तो जो खिलाडी राजनीति में कूदे हैं, उन्होंने अक्सर अपने खिलाड़ी बंधुओं से दूरी बनाना ही बेहतर समझा। वे कभी किसी खिलाड़ी के सगे नहीं हुए। ऐसे बहुत से खिलाड़ी नेता और मंत्री हैं जो खिलाडियों से कन्नी काटना ही बेहतर समझते हैं। अब गेंद खिलाड़ियों के पाले में है, सबक सिखाने का मौका तो है।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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