पेरिस ओलंपिक के लिए चंद सप्ताह का समय बचा है। दुनिया भर के देश अपनी अंतिम तैयारियों के करीब पहुंच गए हैं। इसमें दो राय नहीं कि हमेशा की तरह एक बार फिर चीन, अमेरिका, जर्मनी, रूसी खेमा , जापान, कोरिया, कुछ लेटिन अमेरिकी देश, अफ्रीकी देश पदकों की होड़ में आगे रहेंगे। इनके बीच भारतीय खिलाड़ी कहां नजर आएंगे और कितने पदक जीत पाएंगे , फिलहाल कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।
जहां तक भारत की तैयारियों की बात है तो हमारे खिलाड़ी पिछले तीन चार सालों से खेल मैदानों में डटे हुए हैं और ठीक ठाक रिजल्ट दे रहे हैं। हालांकि भारतीय खेल आकाओं ने देश को खेल महाशक्ति बनाने का आह्वान किया है और हमारे नेता सांसद अक्सर कहते मिल जाएंगे कि अन्य क्षेत्रों की तरह भारत खेलों में भी तरक्की कर रहा है और जगतगुरु बनने की दिशा में अग्रसर है। पेरिस में पदक जीतने का लक्ष्य घोषित नहीं किया गया है लेकिन चुनाव की घोषणा से पहले तक टोक्यो से बेहतर करने के नारे लगाए जाते रहे। पिछले कुछ समय से दावे करने वालों का सुर धीमा पड़ रहा है। हो सकता है चुनावी बुखार तेज होने से आगामी ओलंपिक की तैयारियां प्रभावित हुई हों। यह भी संभव है कि चुनावी तैयारियां ओलंपिक तैयारियां पर भारी पड़ी हों।
टोक्यो में भारत के खाते में सात पदक थे, जिनमें से मात्र एक स्वर्ण पदक भाला फेंक में नीरज चोपड़ा जीत पाए थे। इस बीच खेल बजट बढ़ा है, खिलाड़ियों को हर प्रकार की सुविधाएं दी जा रही हैं। विदेशी कोचों की सेवाएं ली जा रही हैं और अपने खिलाड़ी विदेशों में ट्रेनिंग के लिए भेजे जा रहे हैं। डर है तो बस इस बात का कि क्या हमारे खिलाड़ी पदक जीतने का रिकार्ड बेहतर कर पाएंगे? क्या इस बार भारत कम से कम दो ओलंपिक स्वर्ण जीत पाएगा? यदि नहीं तो पदक तालिका में सुधार कैसे हो पाएगा?
कुछ आलोचक कह रहे हैं कि यदि प्रदर्शन अपेक्षित नहीं रहा तो बना बनाया बहाना हाजिर है। सुधार हुआ तो वाह वाह वरना आम चुनाओं का बहाना काम कर जाएगा। वैसे भी पिछले सौ सालों से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र खोखले दावों, वादों और बहानों से काम चलाता आ रहा है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |