भले ही भारतीय फुटबॉल अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और पुरुष के साथ-साथ महिला फुटबॉल की हालत भी बेहद खराब है। लेकिन गिरावट और मायूसी के दौर में कुछ अच्छा भी हो रहा है। पिछले कुछ समय से दिल्ली सहित देश के अधिकांश राज्यों में फुटबॉल के प्रति अभिभावकों की सोच में बदलाव देखने को मिला है। कुछ साल पहले तक प्राय: पिता अपने बेटे-बेटियों को फुटबॉल अकादमी और ट्रेनिंग सेंटर लेकर जाते थे लेकिन अब यह बीड़ा माताओं ने उठा लिया है।
बंगाल, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल, असम, केरला, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, सिक्किम, ओडिसा और अन्य राज्यों में पिछले कई सालों से माताएं अपने बेटे-बेटियों को खेल मैदानों तक पहुंचाती और घर वापस लाती आई हैं लेकिन यह ‘कल्चर’ अब देश की राजधानी दिल्ली में भी पैर पसार रहा है जो कि तमाम खेलों के उत्थान के लिए शुभ है लक्षण है।
इधर, दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में दिल्ली की अंडर-17 महिला फुटबॉल टीम का चयन ट्रायल चल रहा है। लगभग ढाई सौ लड़कियां ट्रायल में शामिल हुई हैं, जिनमें से कई एक की माताएं भी मैदान के बाहर नजर आईं। उनसे बातचीत से एक बात साफ हो गई कि बदलते भारत की माएं अपनी बेटियों के खेल भविष्य को लेकर गंभीर हैं और घंटो इंतजार करती हैं। इस संवाददाता ने मौके पर मौजूद महिलाओं से बात की और पाया कि पढ़ाई-लिखाई के साथ वे अपनी बेटियों को फुटबॉलर भी बनाना चाहती हैं।
नेहा पंडित, निशा, साराह, पूजा शर्मा, गुड्डन उपाध्याय, सुमन बिष्ट, डॉक्टर प्रियंका, मीनू शर्मा, रश्मि अग्रवाल, शीतल तिलक, शिल्पा काले, बीनू रावत, उर्वशी नेगी, रेखा अग्रवाल आदि मांओं ने बातचीत के दौरान बताया कि बेटियों को फुटबॉलर बनाना चाहती हैं । ज्यादातर पढ़ाई के साथ फुटबॉल में भी पारंगत हैं। तारीफ की बात यह है कि इन माताओं में डॉक्टर, वकील, पूर्व खिलाड़ी और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी हैं और उनकी बेटियों ने फुटबॉल को चुना है। उन्हें यदि मलाल है तो इस बात का कि टीम के चयन में प्राय पारदर्शिता नहीं होती है।
अपना नाम न छापने की शर्त पर कुछ एक ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि विभिन्न आयु वर्गों में टीम का चयन पक्षपात के साथ होता आ रहा है। कुछ एक के अनुसार उन लड़कियों की कोई सुनवाई नहीं होती, जिनका कोई खैरख्वाह नहीं है, जिनकी कोई एप्रोच नहीं है। अधिकतर का मानना है कि यदि दिल्ली फुटबॉल संघ (डीएसए) और उसकी चयन समिति ने साफ-सुथरा चयन नहीं किया तो उनकी बेटियां फुटबॉल से नाता तोड़ सकती है। नतीजन माता-पिता भी फुटबॉल से दूर हो जाएंगे।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |