निशानेबाजी को सबक सिखाना जरूरी, TOPS बाहर किया जाए!

Shooting should be thrown from TOPS

अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति और कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन समिति कुछ खेलों को टेढ़ी नजर से देख रहे हैं। ऐसे खेलों में भारत का सबसे महंगा और खेल मंत्रालय एवं खेल प्राधिकरण का मुंह लगा खेल निशानेबाजी भी शामिल है। बेशक, अभिनव बिंद्रा के ओलम्पिक स्वर्ण पदक ने निशानेबाजी को अग्रणी कतार वाले खेलों में शामिल किया। उनके बाद कुछ अन्य ओलम्पिक पदक विजेताओं ने इस खेल को पदक तालिका का मुख्य आकर्षण बनाया, जिसका फायदा यह मिला कि सरकार की ओलम्पिक पोडियम स्कीम में निशानेबाजी बादशाह बन बैठा।

2014 में युवा एवं खेल मामलों के मंत्रालय द्वारा टारगेट ओलम्पिक पोडियम स्कीम (TOPS) के तहत 2016 के रियो ओलम्पिक और 2020 के टोक्यो ओलम्पिक में पदक की उम्मीद वाले खिलाड़ियों को तैयारी के लिए पर्याप्त सहायता देने का फैसला किया गया। कुश्ती, बैडमिंटन, निशानेबाजी , तीरंदाजी , मुक्केबाजी , हॉकी आदि खेलों को शीर्ष वरीयता दी गई। स्कीम के तहत आने वाले खिलाडियों को ट्रेनिंग, खुराक, सुविधानुसार विदेशों में ट्रेनिंग लेने के लिए लाखों करोड़ों खर्च किए गए। लेकिन नतीजा यह रहा कि रियो ओलम्पिक में मात्र दो पदक सिंधु और साक्षी ही जीत पाए। टोक्यो में सात ओलम्पिक पदकों ने टॉप्स की लाज बचा ली लेकिन तीरंदाजी, मुक्केबाजी और निशानेबाजी ने फिर से टॉप्स का मज़ाक उड़ाया। पुरुष मुक्केबाज, तीरंदाज जौर निशानेबाज पूरी तरह फ्लॉप रहे।

बेशक, निशानेबाजी पर सरकार अपने खेल बजट का बड़ा खर्च करती आ रही है। टॉप्स स्कीम का सबसे ज्यादा फायदा निशानेबाजी को मिला। लेकिन यह खेल आज भी आम भारतीय का खेल नहीं बन पाया है। यह खेल न सिर्फ महंगा है बल्कि इस खेल की अकड़ कुछ कुछ गोल्फ जैसी है जिसमें सिर्फ और सिर्फ पैसे और पहुँच वाले ही प्रवेश पाते है। फिरभी निशानेबाजी को खेल मंत्रालय क्यों भाव देता है, अन्य खेलों से जुड़े कुछ प्रतिभावान खिलाडी जानना चाहते हैं!

लगातार दो ओलम्पिक खेलों में भारतीय निशानेबाजों ने जैसा शर्मनाक प्रदर्शन किया है, उसे देखते हुए उन खेलों के तेवर चढ़ गए हैं जिनका कोई खैर ख़्वाह नहीं है। निशानेबाजों ने भले ही कॉमनवेल्थ खेलों और तथाकथित वर्ल्ड चैम्पियनशिप में पदक लूटे लेकिन ओलम्पिक में उनकी पिस्टल बन्दूक फुस्स क्यों हुए? गरीब और भ्र्ष्टाचार में डूबे देश के करोड़ों बर्बाद करने वाले निशानेबाजों से यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाता? निशानेबाजों और कोचों की दादागिरी और उनकी मनमानी पर सवाल कौन करेगा? एक पूर्व निशानेबाज के अनुसार मंत्रालय और साई से शायद कुछ भी छिपा नहीं है। उन्हें NRAI की हरकतों के बारे में पता है लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?

देश के खेल जानकार और पूर्व खिलाडी नहीं चाहते कि अन्य गरीब खेलों की अनदेखी कर निशानेबाजी पर फिजूल खर्च किया जाए। जब तक निशानेबाज ओलम्पिक में सधा हुआ प्रदर्शन नहीं करते उन्हें टाप्स में शामिल करने का कोई औचित्य नहीं है। यह भी कहा जा रहा है कि एनआरएआई जब तक अपने अंदर के झगडे न निपटा ले निशानेबाजों और उनके खैरख्वाहों को सरकारी सहायता नहीं दी जानी चाहिए।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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