संतोष ट्रॉफी राष्ट्रीय फुटबॉल चैम्पियनशिप में खेल का स्तर देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि क्यों भारत दुनिया के फुटबॉल मानचित्र पर पिछड़ा हुआ है और क्यों लाखों-करोड़ों रुपये बहाने के बाद भी भारतीय फुटबॉल का स्तर सुधर नहीं पा रहा है। हाल फिलहाल खेली जा रही संतोष ट्रॉफी पर सरसरी नजर डालें, तो लगभग तीस-चालीस साल पहले के आयोजन की तुलना में आज भारत की तथाकथित राष्ट्रीय फुटबॉल चैम्पियनशिप किसी स्कूल-कॉलेज के आयोजन से भी बदतर नजर आती है। ज्यादातर टीमों का आलम यह है कि उनके खिलाड़ियों को फुटबॉल का क,ख,ग भी सलीके से नहीं आता है। स्पीड, स्टेमिना, पासिंग, गोल करने और गोल रोकने की कलाकारी में एक-दो प्रदेश ठीक-ठाक कहे जा सकते हैं लेकिन ज्यादातर के स्तर को देखकर फुटबॉल पर रोना आता है। पांच बार खिताब जीतने वाले कर्नाटक, अनेक बार चैम्पियन रहे रेलवे, बंगाल, पंजाब, केरल और सर्विसेज आदि टीमों का खेल देखकर संतोष ट्रॉफी किसी गली-कूचे के आयोजन जैसा लगता है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि 1996 में भारतीय क्लबों की पहली राष्ट्रीय फुटबॉल लीग (आईएसएल) की शुरुआत से पहले तक संतोष ट्रॉफी को शीर्ष घरेलू आयोजन का सम्मान प्राप्त था। हर फुटबॉलर का सपना संतोष ट्रॉफी खेलना था। यहीं से राष्ट्रीय फुटबॉल टीम की दिशा-दशा तय होती थी। इस प्लेटफार्म से उठकर प्रतिभावान खिलाड़ियों को बैंकों, बीमा कंपनियों, तेल कंपनियों, सेना, पुलिस, विभिन्न औद्योगिक घरानों में रोजगार मिलता था। यहीं से निकल कर हमारे खिलाड़ियों ने एशियाड़ और अन्य आयोजनों में खिताब जीते और ओलम्पिक में भाग लिया।
अब भारतीय फुटबॉल यूरोप और लैटिन अमेरिकी देशों की नकल कर रही है। आईएसएल और आई-लीग जैसे बेतुके आयोजन हो रहे हैं, जिनमें बूढ़े विदेशी हमारी फुटबॉल का मजाक उड़ा रहे हैं। साथ ही उभरते खिलाड़ियों की प्राथमिकता बदल गई है। वे देश की बजाय क्लब के लिए खेलना चाहते हैं। वे संतोष ट्रॉफी में भले ही भाग नहीं लें लेकिन आईएसएल और आई-लीग में खेलकर लाखों कमाना चाहते हैं। इस व्यवस्था का गलत परिणाम यह हुआ कि क्लब खिलाड़ियों को राष्ट्रीय टीम के लिए नहीं छोड़ते हैं, जैसे कि एशियाड से पहले हुआ था। नतीजन सेना, पुलिस, रेलवे और अन्य विभागों में या तो खिलाड़ियों की भर्तियां नहीं हो रही है या फिर बचे-खुचे कम प्रतिभा वाले खिलाड़ी ही उपलब्ध हो पा रहे हैं। बेशक, मामला गंभीर है। यदि समय रहते एआईएफएफ ने संतोष ट्रॉफी को मजाक बनने से नहीं रोका तो भारतीय फुटबाल का नामों निशान मिट सकता है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |