अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल महासंघ (फीफा) भारतीय फुटबाल फेडरेशन (एआईएफएफ ) पर लगा प्रतिबंध हटा चुकी है । अर्थात अब 11 से 30 अक्टूबर तक भारत की मेजबानी में खेले जाने वाले अंडर 17 महिला विश्व कप पर से खतरा भी टल गया है । यह भी साफ़ हो गया है कि एआईएफऍफ़ को फीफा और एएफसी की शर्तों के अनुरूप अपने संविधान को फिर से गढ़ना होगा । यह नसीहत भी मिल गई है कि जिन 36 पूर्व खिलाडियों को वोट देने का अधिकार दिया जा रहा था उनका फिर कभी जिक्र न किया जाए । वैसे भी यह तय हो गया है कि आगामी अध्यक्ष कोई पूर्व खिलाडी ही होगा, कल्याण चौबे या बाई चुंग भूटिया में से कोई एक।
बाई चुंग भूटिया और कल्याण चौबे में से कौन भारतीय फुटबाल कि शीर्ष कुर्सी का हकदार बनेगा इसका फैसला चंद घंटे बाद हो जाएगा। इतना तय है कि भले ही पहली बार दो खिलाडी आमने सामने हैं लेकिन जीत उसी की होगी जिसका राजनीतिक दांव दूसरे से बेहतर होगा । हालांकि भूटिया खुद को बेहतर खिलाडी बता रहे हैं और कह रहे हैं कि उसका रिकार्ड कल्याण से कहीं बेहतर रहा है लेकिन यह न भूलें कि चौबे भाजपा सांसद हैं और शायद पार्टी का सपोर्ट भी उनके साथ है । कुल मिला कर दोनों उम्मीदवारों के कद का फैसला उनकी राजनीतिक पहचान और पकड़ के आधार पर होना तय है , जिसमें कल्याण बीस बैठते हैं ।
जहां एक ओर कल्याण फिलहाल चुप बैठे हैं तो आदत से मज़बूर भूटिया ने भारतीय फुटबाल का कायाकल्प कर देने का ढोल बजाना शुरू कर दिया है । श्रीमान जी खिलाडियों को वोट देने का अधिकार दिलाना चाहते हैं , यह जानते हुए भी कि इसी मुद्दे पर फीफा की नाराजगी झेलनी पड़ी थी। भूटिया को सपोर्ट करने वाले एआईएफएफ के राजनीतिकरण से नाराज हैं । लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि भारतीय फुटबाल को अब तक राजनीति के खिलाडी ही ठोकरों से चलाते आ रहे हैं । प्रिय रंजन दास मुंशी और प्रफुल्ल पटेल कोई बड़े चैम्पियन नहीं थे ।
बेशक, ऐसा पहली बार होगा जब कोई खिलाडी एआईएफएफ की बागडोर संभालेगा लेकिन इस बात कि कोई गारंटी नहीं कि भारत में दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल का कारोबार फलेगा फूलेगा । ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि दोनों ही उम्मीदवार खिलाडी से बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं । खासकर भूटिया ने खेल मैदान से हटने के बाद फुटबाल की बेहतरी के लिए शायद ही कुछ किया हो । कल्याण चौबे भी लम्बे समय से राजनीति खेल रहे हैं ।
खैर, अध्यक्ष कोई भी बने उन्हें पता होना चाहिए कि भारतीय फुटबाल साल दर साल नीचे धसक रही है । एआईएफएफ कि सदस्य इकाइयों कि हालत खस्ता है । वार्षिक लीग आयोजन बहुत कम राज्यों में सम्भव हो पा रहा है । सच तो यह है कि राज्य इकाइयों कि हालत एआईएफएफ से भी बदतर है । अधिकांश राज्यों में कई गुट सक्रीय हैं और मन मर्जी से फुटबाल को बर्बाद कर रहे हैं । इस तरफ फीफा का ध्यान नहीं गया और न ही कभी एआईएफएफ ने इस बारे में सोचा है । उम्मीद की जानी चाहिए कि जो कोई भी अध्यक्ष बने सबसे पहले भारतीय फुटबाल के गरीब ग्रासरूट ढाँचे कि तरफ ध्यान देगा और मुंशी और पटेल की गलत नीतियों का अनुसरण नहीं करेगा ।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |