सरकार द्वारा ओलम्पिक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में सामान्य और दिव्यांग (पैरा) खिलाडियों को समान पुरस्कार राशि और खेल अवार्ड दिए जाने के फैसले की हर कोई सराहना कर रहा है। ओलम्पिक पदक विजेता खिलाडी और पैरा खिलाडी एक ही तराजू से तोले जा रहे हैं। लेकिन क्या आम और ख़ास खिलाडियों को सचमुच एक ही नजर से देखा जा रहा है? क्या उन्हें समान सुविधाएं उपलब्ध हैं और क्या उन्हें शारीरिक योग्यता और क्षमता केआधार पर अलग ट्रीट नहीं किया जा रहा है? इन सवालों का सीधा सा जवाब यह है कि जैसा दिखता है वैसा कुछ नहीं है। वरना क्या कारण है कि पश्चिम बंगाल के 20 वर्षीय पैरालम्पिक तैराक अमर्त्या चक्रबर्ती को साधन सुविधाओं की कमी के कारण जिंदगी मौत के बीच झूलना पड़ रहा है?
राष्ट्रीय स्तर पर 30 से अधिक स्वर्ण पदक जीतने वाला यह तैराक दिल्ली के जीवी पंत हस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रहा है। उसके पिता अमितोष चक्रबर्ती के अनुसार अमर्त्या की रीढ़ की हड्डी पूरी तरह असंतुलित हो चुकी है और शरीर के निचले हिस्से ने पूरी तरह काम करना बंद कर दिया है। डॉक्टरी जुबान में इसे “आर्टिरियोवेन्स मैलफार्मेशन(AVM) या धमनीविस्फार विकृति” कहते हैं। नतीजन वह बिस्तर पर पड़ा है। पश्चिम बंगाल में ओपोलो और फोर्टिस हस्पताल और चैन्नई एवं दिल्ली के हस्पतालों के डाक्टर उसका इलाज कर चुके हैं लेकिन उसकी बीमारी को कोई नहीं पकड़ पाया। अमितोष खुद मेडिकल रेपरजेन्टेटिव हैं और मानते हैं कि दिल्ली के एआईआईएमएस या इंग्लैण्ड और अमेरिका के हस्पताल में ही बेटे की बीमारी का इलाज सम्भव है। लेकिन मेडिकल इंस्टिट्यूट में उनकी कोई पहचान नहीं निकल पा रही और विदेशों में पचास लाख का इलाज करना उनके बूते की बात नहीं है।
हारे और पूरी तरह टूट चुके पिता को जानी मानी तैराक मीनाक्षी पाहूजा ढाढ़स बंधा रही हैं और अपने स्तर पर अमर्त्या को फिर से पैरों पर खड़ा करने के लिए हर सम्भव कोशिश में लगी हैं। पिछले एक साल में दुखी माता पिता ने हर दरवाजा खटखटाया, खेल मंत्रालय खेल प्राधिकरण भारतीय पैरालम्पिक फेडरेशन और खिलाडियों की मदद का दम भरने वाले तमाम संगठनों से गुहार लगाई लेकिन उनकी फ़रियाद कहीं नहीं सुनी गई।
18000 मासिक वेतन पाने वाला पिता दो साल बाद सेवा निवृत हो जाएगा और तब उसके पास अपने परिवार के भरण पोषण और इलाज के लिए कुछ भी नहीं बच पाएगा। वह अपने जीवन भर की कमाई बेटे के इलाज पर खर्च कर चुका है। लगभग आठ साल तक पैरा तैराकों में अलग पहचान रखने वाला उसका चैम्पियन बेटा पल पल मौत की तरफ बढ़ रहा है। माता पिता अपने बेटे को एक बार अपने पैरों पर खड़ा देखना चाहते हैं। ऐसा तब ही सम्भव है जब सरकार, खेल मंत्रालय, औद्योगिक घराने और कोई अन्य संस्था आगे बढ़ कर बिस्तर पर जीवन के बाकी दिन काट रहे तैराक की मदद के लिए हाथ बढ़ाए।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |