सरकारी बाबूभर हैं हमारे कोच

Our coaches are like govt Clerk

देश में फुटबाल का कारोबार करने वाले भले ही लाख दावे करें और फुटबाल प्रेमियों को झूठे आँकड़े परोसें लेकिन किसी भी खेल का भला तब तक संभव नहीं है जब तक उनका कोचिंग सिस्टम प्रभावी नहीं होगा। देश के जाने माने फुटबाल कोच, अनेक किताबों के लेखक और बांग्लादेश की फुटबाल को सजाने सँवारने वाले बीरू मल का ऐसा मानना है। उनके अनुसार अपने देश में अच्छे कोचों और फुटबाल जानकारों की कोई कद्र नहीं है। उन्हें सरकारी बाबुओं की तरह ट्रीट किया जाता है। यही कारण है कि उपेक्षा से तंग आकर एनआईएस के निदेशक रहे बीरू मल ने भारत छोड़ कर 13 साल तक बांग्लादेश की उन जूनियर टीमों को सिखाया पढ़ाया, जिन्होने आगे चल कर भारतीय फुटबाल को कड़ी टक्कर दी।

उनके अनुसार भारत में अच्छे और क्वालीफाइड कोचों की हमेशा से कमी रही है। लेकिन यह भी सच है कि साई और फुटबाल फ़ेडेरेशन ने काबिल कोचों की कभी कद्र नहीं की। जहाँ एक ओर विदेशी कोच लाखों में खेलते रहे तो अपनों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। भारतीय अधिकारियों पर गोरी चमड़ी का रंग कुछ इस कदर असर कर गया है कि अपने अधिकारियों को स्वदेशी कोचों की सही राय भी ग़लत लगती है। इतना ही नहीं हमारे खिलाड़ी विदेशी कोचों के सामने भीगी बिल्ली बने रहेते हैं पर अपने कोचों को कुछ नहीं समझते। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब खिलाड़ी कोचों पर भारी पड़ते हैं। थोड़ा सा नाम सम्मान पाने के बाद वे खुद को कोच से भी बड़ा समझने लगते हैं। ऐसे खिलाड़ियों का बर्ताव खेल के लिए घातक होता है। कई कोच अपने स्वार्थों के चलते अयोग्य और जुगाड़ू खिलाड़ियों के सामने मिमियाते देखे जाते हैं।

बीरू मल को डर है कि देश का कोचिंग सिस्टम जिस दिशा में जा रहा है उसे देखते हुए नहीं लगता कि भारत कभी फुटबाल में ताक़त बन पाएगा। फिर चाहे कितने भी दावे कर लें, झूठ बोल लें। यहाँ कामयाब कोच का मतलब यह है कि उसे द्रोणाचार्य अवॉर्ड मिला या नहीं। कई ऐसे महाशय हैं जिन्हें अपनी पत्नी के कारण द्रोणाचार्य मिला तो कुछ एक पदक विजेता खिलाड़ियों को अपना चेला बनाने और बताने में माहिर थे इसलिए सम्मान पा गए। उन्हें भारत में कोचिंग सिस्टम मृतवत लगता है, जोकि कुछ अवसरवादियों के इशारे पर चल रहा है।

अपने देश के कोचिंग सिस्टम की सबसे खराब बात उन्हें यह नज़र आती है कि हमारे कोच फ़ेडेरेशन और साई के अधिकारियों के तलवे चाटते हैं, विदेशी कोचों की चाकरी करते हैं लेकिन अपने कोचों को ज़रा भी बर्दाश्त नहीं करते। कई कोच ऐसे हैं जोकि पूरी सर्विस एक केंद्र पर बिता देते हैं। अपने संबंधों का फ़ायदा उठा कर काबिल कोचों का हक मारते हैं और खेल अवॉर्ड एवम् रिवॉर्ड पाते हैं। बीरू कहते हैं कि विदेशी कोच अपने काम और परिणाम पर ध्यान देते हैं तो भारतीय कोच अधिकारियों की चाकरी, अपनों की चुगली को ही प्रोफ़ेशन समझते हैं। उनके अनुसार यदि भारत को खेलों में प्रगति करनी है तो सबसे पहले कोचों और कोचिंग सिस्टम को सुधारना होगा। दोनों ही भारतीय खेलों का अभिशाप बन गए हैं।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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