भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो ज्यादातर खेलों के शीर्ष पदों पर नेता और राजनीति से जुड़े लोगों का साम्राज्य कायम रहा है। दूसरा वर्ग खेल प्रशासकों का है जोकि अपने रुतवे के चलते खेलों के उच्चपद हथियाते आए हैं। यह भी सच है कि शायद ही किसी खेल को सजाने संवारने और निखारने में इन महानुभावों ने कोई करिश्माई काम किया हो। लेकिन खेल में लगातार गिरावट के बावजूद ज्यादातर लोग चार साल के दो-तीन टर्म या कुछ एक बीस तीस सालों तक उस खेल के मुखिया बने रहते हैं।
इसे भारतीय खेलों का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उसके ज्यादातर आकाओं को कड़े विरोध या न्यायालय के फैसले के बाद ही पद छोड़ना पड़ा है। मसलन अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन के अध्यक्ष पटेल और हॉकी इंडिया के अध्यक्ष रहे डाक्टर नरेंद्र बत्रा के मामले ताज़ा हैं। कुर्सी पर बैठते ही उनके सुर ताल बदले, खेल को अपने तरीके से भगाया थकाया और अंततः उन्हें इसलिए हटना पड़ा है क्योंकि न्यायालय को उनकी नीयत में खोट नज़र आया है।
इसमें दो राय नहीं कि डाक्टर बत्रा ने भारतीय हॉकी को गिरावट कि हदों से उबारने के लिए बहुत कुछ किया। पूर्व आईएचएफ अध्यक्ष केपीएस गिल के हाथों हॉकी को छीन कर उन्होंने अपने तरीके से हॉकी को चलाने का भरसक प्रयास किया। अंतर्राष्ट्रीय हॉकी फेडरेशन का अध्य्क्ष पद पाना उनकी बड़ी उपलब्ध रही। भारतीय हॉकी की रैंकिंग में बड़ा उछाल भी उनके कार्यकाल में सम्भव हो पाया। लेकिन उन पर जिस तरह के आरोप लग रहे हैं उन्हें देख कर तो यही कहा जाएगा कि डाक्टर बत्रा भी दलदल से नहीं बच पाए। नतीजन उन्हें एफआईएच और आईओए अध्यक्ष पद त्यागने पड़ रहे हैं।
बत्रा के शासन काल को दो अलग अलग चश्मों से देखा जा रहा है। जो उनके करीबी थे और जिन्हें सानिध्य प्राप्त हुआ उनके लिए बत्रा हॉकी को बढ़ावा देने वाले महान संत के रूप में देखे जा रहे हैं तो एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लगता है कि गिल द्वारा स्थापित मानदंडों की अनदेखी कर उन्होंने हॉकी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। जो लोग हॉकी को उड़ीसा की बपौती बनाने पर तुले थे उन पर उंगली उठाने लगी है।
बत्रा को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हॉकी के उच्च पदों से बेदखल किए जाने के कोर्ट के फैसले से उन लोगों को सुकून मिला है जिन्हें लगता है कि अब हॉकी फिर से उड़ीसा से बाहर निकल कर पूरे देश में पहचान बना पाएगी| खासकर, दिल्ली, पंजाब और कुछ अन्य प्रदेशों के खिलाडी और खेल प्रशासक बत्रा के विरुद्ध चल रहे अभियान को हॉकी के लिए बेहतर कदम बता रहे हैं| उनमें से कुछ एक तो यहां तक कह रहे हैं कि पद और पहचान के नशे में चूर होने वालों को एक दिन यह दिन भी देखना पड़ता है।
आईओए का एक बड़ा धड़ा भी खुश है क्योंकि उन्हें लग रहा था कि देश में ओलम्पिक आंदोलन पर विपरीत असर पड़ रहा था। कुछ पूर्व खिलाडियों के अनुसार सरकार देशवासियों के खून पसीने की कमाई खिलाडियों पर लगा रही है और अकड़ धकड़ खेल संघों के भ्र्ष्ट अधिकारी दिखा रहे हैं। उम्मीद की जा रही है कि कोर्ट का फैसला बेहतर माहौल बनाने में सहायक रहेगा।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |