जो जीता वो सिकंदर लेकिन देश का करोड़ों बर्बाद करने वालों को क्या कहेंगे?
टोक्यो ओलंम्पिक में दिव्यांग खिलाड़ियों ने भी जम कर पदक जीते। जो दावा किया था उससे भी कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। तुलनात्मक अध्ययन करें तो नीरज चोपड़ा के एकमात्र स्वर्ण पदक के साथ जीते कुल सात पदकों के मुक़ाबले 5 स्वर्ण सहित जीते गए 19 पदकों का वजन बहुत ज्यादा है। लेकिन समानता की बात करने वालों से यह पूछा जा सकता है कि जो आदर सत्कार सामान्य पदक विजेताओं को मिला दिव्यांग चैंपियनों को उनके मुकाबले कमतर आंका गया या यूं भी कह सकते हैं कि उनके मामले में खाने और दिखाने के दांत अलग अलग हैं।
यह सही है की देश के शीर्ष पदों पर बैठे नेता, सांसदों और उच्च अधिकारियों ने दिव्यांग चैम्पियनों को जम कर सराहा। उन्हें बड़े बड़े आश्वासन दिए गए लेकिन सामान्य खिलाड़ियों के मुकाबले लगभग तिगुने पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के प्रति यह आदर भाव सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति ज़्यादा नज़र आती है। एक तरफ तो सरकारें सामान्य और दिव्यांग खिलाड़ियों को एक तराजू से तोलने की बात करते हैं , उन्हें बराबर पुरस्कार राशि देने का दम भरते हैं तो धरातल पर कुछ और ही नज़र आ रहा है। ऐसा क्यों है? क्यों दिव्यांग खिलाड़ी बेहतर करने के बावजूद उपेक्षित है?
कुछ खिलाड़ियों को उच्च पदों पर नौकरियों की पेशकश की जा रही है तो दिव्यांग टक टकी लगाकर क्यों देख रहे है?
कुछ दिव्यांग चैंपियनों ने उनके साथ हो रहे सौतेले व्यवहार के बारे में जो कुछ बताया उससे इतना तो साफ हो गया है कि हमारा दिव्यांग समाज आज भी अभाव और उपेक्षा का जीवन जी रहा है। उन्हें मदद का सिर्फ़ झूठा वादा किया जाता है। कोई भी उन्हें और उनकी परेशानियों को समझने का प्रयास नहीं करता| सरकारें या अधिकारी उनके प्रति दिखावे की सहानुभूति का प्रदर्शन करते हैं या उनसे परहेज करते हैं। अफ़सोस की बात यह है कि उनके लिए ग्रास रुट स्तर से ही सुविधाओं का अभाव है। खेल उपकरण, स्टेडियम और अन्य सुविधाएं न के बराबर हैं।
जहाँ एक ओर सामान्य बच्चों के स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर के बड़े बड़े खेल आयोजन होते हैं तो दिव्यागों को ऐसा माहौल नहीं मिल पाता और ज़्यादातर प्रतिभाएँ खिलने से पहले ही मुरझा जाती हैं। ज़्यादातर खिलाड़ियों के अनुसार सामान्य कोच, या अधिकारी उनकी मन: स्थिति को कम ही समझ पाते हैं। अच्छे और समझदार कोच बहुत कम हैं। यदि दिव्यांग कोच नियुक्त किए जाएँ तो बेहतर रहेगा।
अधिकांश दिव्यांग खिलाड़ी इसलिए भी नाराज़ हैं क्योंकि उन्हें बड़े स्तर पर पदक जीतने के बावजूद भी नौकरियाँ नहीं मिल पा रहीं। नतीजन वे खेल जारी नहीं रख पाते। घर-बाहर उन्हें ताने सुनने पड़ते हैं, जिससे उनकी मनः स्थिति पर बुरा असर पड़ता है। कुछ खिलाड़ियों के अनुसार पढ़ लिख कर उच्च पद पर आसीन अधिकारी खेल जारी रख सकते हैं लेकिन सिर्फ़ खेल को चुना तो जीवन अंधकारमय भी हो सकता है।
ज़्यादातर खिलाड़ियों के अनुसार उनका जीवन कदम कदम पर चुनौतियों से भरा है। चोट, दुर्घटना, फेल होने का डर और अभाव की जिंदगी से लड़ लड़ कर मज़बूत तो बन सकते हैं लेकिन जब कोई अधिकारी उनकी योग्यता को स्वीकार नहीं करता तो बड़ा सदमा लगता है। अधिकांश ने सरकार और राज्य सरकारों से मांग की है कि उन्हें सामान्य खिलाड़ियों से कमतर ना आँका जाए। पुरस्कार राशि, साधन सुविधा बराबर होने चाहिए। यदि सरकारें ही उनकी नहीं सुनेंगी तो दिव्यांग कहाँ और किसके पास अपनी गुहार लगाएंगे?
और हां, वो बड़ी कंपनियां और औद्योगिक घराने कहां हैं जोकि नीरज चोपड़ा और अन्य पदक विजेताओं पर बलिहारी थे , उन्हें गाड़ियां, मकान, दुकान और बहुत कुछ बांट रहे थे? दिव्यांगों से दूरी क्यों बना रखी है?
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |