इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश की प्रगति में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं। जिन क्षेत्रों में कभी पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था, वहां भी महिलाएं सफलता की कहानी लिख रही हैं। खेलों में भी भारतीय महिलाओं ने देर से ही सही, अभूतपूर्व सफलता अर्जित की है। पीटी उषा ओलम्पिक पदक से चूक गई लेकिन कर्णम मल्लेश्वरी और तत्पश्चात सायना नेहवाल, मैरीकॉम, पीवी सिंधू, साक्षी मलिक, लवलीना, मीराबाई चानू आदि महिलाओं की ओलंपिक उपलब्धियों से भारतीय खेल जगत अनेकों बार गौरवान्वित हुआ है।
आठ मार्च को देश भर के समाचार पत्र, पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर आज की भारतीय नारियों के किस्से-कहानियों का प्रचार-प्रसार किया गया। शिक्षा, साहित्य, फिल्म, बिजनेस, विज्ञान, चिकित्सा और तमाम क्षेत्रों में महिलाओं की तरक्की का बखान किया गया, जो कि भावी पीढ़ियों के मार्ग-दर्शन की दृष्टि से सही प्रयास है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि महिला खिलाड़ियों के संघर्ष और उनके परिवार के समर्पण की कहानियों का शायद ही जिक्र मिलता है।
बेशक, महिला खिलाड़ियों को पुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है। घर-परिवार की पुरानी सोच, सामाजिक मान्यताओं और खेल आकाओं की कुदृष्टि एवं घृणित सोच से उन्हें जूझना पड़ता है। जैसा कि पिछले एक-डेढ़ साल से भारतीय कुश्ती में चल रहा है। भारतीय पहलवानों ने अपनी फेडरेशन के मुखिया पर यौन-शोषण के गंभीर आरोप लगाकर एक बार तो महिला कुश्ती को झकझोर कर रख दिया था। कुश्ती पर से खतरा अभी टला नहीं है। सरकार का खेल मंत्रालय, आईओए और फेडरेशन आज भी असमंजस की स्थिति में है। साक्षी मलिक, विनेश फोगाट और अन्य महिला खिलाड़ियों ने पूर्व फेडरेशन अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह पर जो आरोप लगाए, यदि उनमें रत्ती भर भी सच है तो यह मान लेना पड़ेगा कि भारत में आज भी महिला खिलाड़ी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है।
महिला दिवस पर महिला खिलाड़ियों के लिए मीडिया ने जो कुछ भी परोसा, वह तब तक नाकाफी है, जब तक महिला खिलाड़ी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं। पिछले कुछ सालों में कुश्ती के अलावा हॉकी, तैराकी, साइकिलिंग, जूडो, तायक्वांडो, निशानेबाजी और तमाम खेलों में महिला खिलाड़ियों ने अपने कोचों और फेडरेशन अधिकारियों के खिलाफ अनेकों बार आवाज उठाई लेकिन सभी मामले फाइलों में दफन कर दिए गए। अफसोस की बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं को लेकर बहुत कुछ कहा-सुना गया है लेकिन महिला पहलवानों के आरोपों पर हर कोई खामोश रहा। बेहतर होता कि दूध का दूध किया जाता। लेकिन सरकार और कुश्ती के आकाओं की नीयत में खोट नजर आता है। मामला कोर्ट में है और कोर्ट ही महिला पहलवानों को न्याय दिला सकता है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |