एशियाई खेलों के लिए चंद महीने बाकी हैं लेकिन भारतीय कबड्डी तैयारी की बजाय अपनी अंदरूनी फूट से जूझ रही है। कबड्डी के माई बाप यह भूल गए हैं कि सात बार के एशियाड चैंपियन देश के खेल प्रेमी पिछले खेलों में गंवाया स्वर्ण वापस चाहते हैं। जकार्ता एशियाड में भारत शर्मनाक प्रदर्शन के साथ कांस्य पदक ही जीत पाया था।
खराब प्रदर्शन का असल कारण फूट और गुटबाजी थी। वर्षों तक कबड्डी फेडरेशन के मुखिया रहे स्वर्गीय जनार्दन गहलोत के निधन के बाद शुरू हुई आपसी कलह गुटबाजी, आरोप प्रत्यारोप से होती हुई कोर्ट कचहरी तक पहुंची और अब मामला सुलझने की बजाय और बिगड़ रहा है। कुछ समय के लिए श्रीमती गहलोत अध्यक्ष बनीं। लेकिन जल्दी ही उनके बेटे तेजस्वी गहलोत को अध्यक्ष पद सौंप दिया गया। कासानी ज्ञानेश्वर महासचिव और दिल्ली के निरंजन सिंह को कोषाध्यक्ष चुना गया। लेकिन गुटबाजी और सत्तालोलुपता के चलते खेल बिगड़ता चला गया। इसी फूट का नतीजा था कि एशियाड में दो गुट अपनी अलग अलग टीम भेजने पर अड़ गए थे और जैसे तैसे मामला सुलट पाया।
यह सही है कि प्रो कबड्डी लीग की शुरुआत के बाद खिलाड़ियों को लाखों करोड़ों मिल रहे हैं लेकिन कबड्डी अब कोर्ट कचहरी में खेली जाने लगी है जिसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। दुर्भाग्यवश, कोई भी कबड्डी की गुटबाजी को गंभीरता से नहीं ले रहा।
भारतीय खेलों के लिए चीन में आयोजित होने वाले एशियाई खेल कई मायनों में चुनौतीपूर्ण रहेंगे। एक तो भारत द्वारा टोक्यो ओलंम्पिक में अर्जित साख दांव पर रहेगी। दूसरे हमें अपनी क्षमताओं का पता चल पाएगा कि हमारे खेल किस दिशा में जा रहे हैं।
लेकिन क्या भारतीय खिलाड़ी ऐसा कर पाएंगे? क्या भारत चीन , जापान और कोरिया को कड़ी टक्कर दे पाएगा? लेकिन भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती कुछ ऐसे खेल हैं जोकि ओलंम्पिक में शामिल नहीं हैं, जिनमें सबसे पहले कबड्डी का नाम आता है जोकि लगातार कोशिशों के बावजूद भी ओलंम्पिक खेल का दर्जा हासिल नहीं कर पाया है। डर इस बात का भी है कि यदि भारतीय पुरुष और महिला टीमें पिछले एशियाड की तरह एकबार फिर स्वर्ण पदक जीतने में नाकाम रहती हैं तो कबड्डी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा सकता है।
कबड्डी यदि आज एशियाई खेलों का अभिन्न अंग बन पाई है तो बड़ा श्रेय भारत को जाता है, जिसने अपने दम पर दक्षिण एशियाई देशों और ईरान, कोरिया को एक प्लेटफार्म पर लाकर कबड्डी को बड़ी पहचान दिलाई है।
जब भारत में प्रो कबड्डी लीग की शुरुआत हुई तो यह कहा गया कि प्रो कबड्डी के अस्तित्व में आने के बाद भारत इस खेल को ओलंम्पिक दर्जा दिला पाएगा और विश्व में कबड्डी की ताकत बनेगा। लेकिन सत्ता के भूखों ने कबड्डी को तमाशा बना कर रख दिया है। चार साल होने को हैं लेकिन फेडरेशन के झगड़े नहीं सुलट पा रहे। ऐसे में एशियाई खेलों की तैयारी पर बुरा असर तो पड़ेगा , भारत के हाथ से कबड्डी फिसल भी सकती है। यह भी तय है कि यदि भारत कबड्डी की ताक़त नहीं रहा तो खेल पर संकट गहरा सकता है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |