टोक्यो ओलंम्पिक में भले ही भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने कांस्य पदक जीत कर देश के हॉकी प्रेमियों को राहत दी है लेकिन इतने से ही संतुष्ट होना काफी नहीं होगा। सच तो यह है कि आज भारतीय हॉकी उस मुकाम पर है जहां से आगे बढ़ने की संभावनाएं बहुत हैं परंतु जरा सी लापरवाही खेल बिगाड़ भी सकती है। जिन तेवरों के साथ भारत ने ऑस्ट्रेलिया से करारी शिकस्त झेलने के बाद वापसी की उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम ही होगी। अब देखना यह होगा कि फिसलन भरे ट्रैक पर हमारी हॉकी टीमें कैसे आगे बढ़ पाती हैं।
ओलंम्पिक में महिला खिलाड़ियों का प्रदर्शन भी सराहनीय रहा। लेकिन अभी यह पूरी तरह नहीं मान लेना चाहिए कि पुरुष और महिला दोनों ही टीमों ने यूरोपीय देशों से निपटना सीख लिया है। फिरभी पूरा देश और हॉकी प्रेमी रोमांचित हैं कुछ एक तो यह मान बैठे हैं कि भारतीय हॉकी पटरी पर लौट आई है। शायद ऐसी सोच को जल्दबाजी कहा जाएगा।
अगले दो ओलंम्पिक तक रुकें:
बेशक, टोक्यो ओलंम्पिक में भारतीय पुरुष और महिला टीमें खूब खेलीं। ओलंम्पिक प्रदर्शन देख कर लगा जैसे हमारे खिलाड़ियों के हाथ कोई जादुई चिराग लग गया है। भारतीय खिलाड़ी स्पीड, स्टेमिना और गोल जमाने की कलाकारी में यूरोपीय टीमों को कड़ी टक्कर देते नजर आए। ऐसा एक बार भी नहीं लगा कि यह वही टीम है जिसकी गोरे खिलाड़ियों के सामने हवा निकल जाती थी। अब पेरिस ओलंम्पिक के लिए तीन साल बचे हैं। भले ही भारतीय खिलाड़ियों ने कामयाब होने के तमाम दांव पेंच सीख लिए हैं। लेकिन बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, नीदरलैंड, अर्जेन्टीना आदि टीमों पर बढ़त बनाने के लिए भारत को पेरिस में एक दो कदम आगे बढ़ाने होंगे। तत्पश्चात एक और ओलंम्पिक तक भारतीय टीम को जांचना परखना बेहतर रहेगा। जल्दबाजी में वापसी का डंका पीटना ठीक नहीं होगा।
एशियाड स्वर्ण की चुनौती:
टोक्यो ओलंम्पिक में भारत के अलावा कोई अन्य एशियाई देश क्वार्टर फाइनल तक भी नहीं पहुंच पाया। अकेले भारतीय पुरुष और महिला टीमें महाद्वीप की प्रतिष्ठा के लिए जूझती रहीं। वैसे तो एशियाई हॉकी का पतन उस दिन शुरू हो गया था जब भारत और पाकिस्तान जैसे दिग्गज जीतना भूल गए थे। फ़िलहाल भारतीय हॉकी वापस लौट रही है और पाकिस्तान की हालत शायद खुद पाकिस्तान को नहीं पता। अब अगले साल होने वाले एशियाई खेलों में ही महाद्वीपीय हॉकी की दशा दिशा का पता चल पाएगा। भारत के लिए एशियाई खेलों का खिताब अब ज्यादा महत्वपूर्ण बन गया है। वैसे भारत और पाकिस्तान के अलावा कोरिया, जापान और मलेशिया ही महाद्वीप की हॉकी को बचाए हैं।
चूक की गुंजाइश नहीं:
यह नहीं भूलना चाहिए कि हमने 41 साल बाद फिर से हॉकी में पदक जीतने की शुरुआत की है। अब हर अगला कदम सोच समझ कर रखना होगा। ज्यादा आत्मविश्वास और बड़बोला पन कैसे भारी पड़ सकता है, पिछले प्रदर्शनों से सीखा जा सकता है। फिलहाल चूक की कोई गुंजाइश नहीं बची है। चूक का मतलब है फिर से गर्त में जाना।
ग्रास रूट पर जोर:
भले ही टोक्यो में खेले अधिकांश खिलाड़ी अगले ओलंम्पिक तक देश को सेवाएं दे सकते हैं लेकिन यदि हॉकी को अपना खोया स्थान पाना है तो उभरती प्रतिभों पर खास ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे सैकड़ों खिलाड़ी अभी से चुन लिए जाएं जोकि आठ दस साल बाद राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बनें। यह प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। यही निरंतरता भारतीय हॉकी को उसका खोया सम्मान लौटा सकती है।
थैंक्यू उड़ीसा:
उड़ीसा यूं तो पिछले कई सालों से भारतीय हॉकी की मदद कर रहा है लेकिन दस साल तक गोद लेने का ऐतिहासिक निर्णय हॉकी के दुख दर्द मिटाने के लिए काफी है। हर तरफ नवीन पटनायक सरकार की तारीफ हो रही है। अब हॉकी इंडिया को चाहिए कि स्वागत समारोहों से निपटने के बाद खिलाड़ियों की तैयारी को गंभीरता से ले चूंकि एशियाड ज्यादा दूर नहीं है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |