विश्व एथलेटिक चैम्पियनशिप में नीरज चोपड़ा ने रजत पदक जीत कर भारतीय एथलेटिक का सम्मान बचा लिया। भले ही वह पीले रंग का पदक नहीं जीत पाया लेकिन जहां तक प्रदर्शन की बात है तो वह कसौटी पर खरा उतरा। ग्रेनेडा का एंडरसन पीटर्स भले ही स्वर्ण पदक जीत गया लेकिन नीरज चैंपियन की तरह लड़ा।
टोक्यो ओलंम्पिक में नीरज ने अपने प्रदर्शन से सौ साल के सूखे को समाप्त किया तो यह उम्मीद बंधी थी कि अब भारत में भी एथलेटिक के प्रति रुझान बढ़ेगा और ज्यादा से ज्यादा बच्चे और युवा इस खेल को अपनाएंगे। हालाँकि अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन नीरज का पदक भी भारत में एथलेटिक के लिए माहौल बनाता नजर नहीं आता।
भले ही खेल मंत्रालय और एथलेटिक फेडरेशन बड़े बड़े दावे करें और अपने एथलीटों पर लाखों करोड़ों खर्च करे लेकिन दूसरे ओलम्पिक पदक और विश्वस्तरीय कामयाबी के लिए शायद अभी लम्बा सफर तय करना बाकी है। नीरज से पहले सरदार मिल्खा सिंह और पीटी उषा के प्रदर्शन की चर्चा आम थी। उन्हें लगभग साठ साल तक भारतीय एथलेटिक का महानतम बताया जाता रहा। हालाँकि नीरज की कामयाबी के बाद भी मिल्खा और उषा का कद छोटा नहीं होगा लेकिन भारतीय एथलेटिक कब तक यूँ ही उम्मीद के सहारे जीती रहेगी?
ओलम्पिक के बाद विश्व एथलेटिक में भी दुनिया के बहुत छोटी आबादी वाले और गरीबी रेखा के बहुत नीचे जीने वाले देशों के एथलीट पदक तालिका में बहुत ऊपर नजर आते हैं। जहां तक भारतीय उम्मीद की बात है तो हमारी उम्मीद नीरज से शुरू होकर उसी पर खत्म होती है।
भारतीय खेल प्रेमी जानते ही होंगे कि एथलेटिक कभी भी आम भारतीय की पहली प्राथमिकता कभी भी नहीं रही। हालाँकि एथलेटिक को खेलों कि जननी या मां कहा जाता है लेकिन हमने कभी भी एथलेटिक को यह सम्मान नहीं दिया। शुरूआती वर्षों में हॉकी और कुछ हद तक फुटबाल आम भारतीय के खेल रहे लेकिन धीरे धीरे क्रिकेट भारतीय खेलों का बाप बन कर पूरे देश पर छा गया और उसकी पकड़ लगातार मज़बूत हो रही है। रही सही कसर मार्शल आर्ट्स खेलों ने पूरी कर दी जिसके ज्यादातर खेल फ़र्ज़ी हैं और देश के महां फ़र्ज़ी और अवसरवादियों द्वारा चलाये जा रहे हैं। क्रिकेट और मार्शल आर्ट्स खेलों में बर्बाद हो रही प्रतिभाओं को जब तक ओलम्पिक खेलों का पाठ नहीं पढ़ाया जाता सुधार कि गुंजाईश कम है।
भारतीय एथलेटिक के हाल के प्रदर्शन पर सरसरी नज़र डालें तो कहीं भी कुछ भी नहीं बदला। चौथे से आठवें स्थान पर पहले भी बहुत से एथलीट रहे हैं और इस बार भी कुछ एक इस कसौटी पर खरे उतरे हैं। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि क्यों हमारी सरकारें बार बार खेल महाशक्ति बनने का दवा करती हैं।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |