खेल ही खिलाड़ी की जाति और धर्म होता है!

In sports there is no religionno cast

‘खुदा का शुक्र है, भारतीय खेल फिलहाल धर्म और जातिवाद से अछूते हैं और खिलाड़ी चाहे किसी भी धर्म या जाति का हो उसकी देशभक्ति पर कभी उंगली नहीं उठाई गई’। 1975 की विश्व विजेता भारतीय हॉकी टीम के कुछ खिलाडियों ने एक समारोह के चलते जब यह प्रतिक्रिया व्यक्त की तो लगा देश के खेलों में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। लेकिन जब कभी गन्दी राजनीति के चलते देश में दंगा फसाद की ख़बरें छपती हैं तो खिलाडियों के माता पिता सोच में पड़ जाते हैं। खासकर, महिला खिलाडियों को लेकर उनकी चिंता बढ़ जाती है।

आज़ादी पूर्व की चैम्पियन भारतीय हॉकी टीम और अब तक की तमाम टीमों पर सरसरी नज़र डालें तो सभी धर्मों के खिलाडी एकजुटता से खेले और उनके बीच कभी भी किसी भी प्रकार का वैमनस्य देखने को नहीं मिला। ऐसा सिर्फ हॉकी में ही नहीं है। क्रिकेट फुटबाल और तमाम खेलों में भारत के लिए खेलने वाला हर खिलाडी नाम और जाति से नहीं अपने खेलकौशल से जाना पहचाना गया।

अपने जमाने के नामी फुटबाल कोच स्वर्गीय रहीम साहब से जब किसी ने पूछा क़ि आप अपने बेटे हकीम को राष्ट्रीय टीम में शामिल करने से क्यों कतराते हैं तो उनका जवाब था, ‘भले ही बेटे की कुर्बानी देनी पड़े लेकिन कोई इल्जाम मंजूर नहीं’। ये वही कोच थे जिनके रहते भारत ने 1951 और 1962 के एशियाई खेलों के स्वर्णपदक जीते और चार ओलम्पिक खेले थे।

हॉकी जादूगर मेजर ध्यानचंद की चैम्पियन टीम में युसूफ, नवाब पटौदी, शौकत अली, असलम जफ़र, दारा, मसूद, शेरखान जैसे मुस्लिम खिलाडियों का योगदान बढ़ चढ़ कर रहा तो आज़ादी बाद की भारतीय हॉकी को अख्तर, लतीफुर रहमान, इनामुर रहमान, असलम शेर खान, ज़फर इकबाल मोहम्मद शाहिद जैसे पहली कतार के खिलाडियों ने सेवाएं दीं।

यह सही है कि हॉकी में सिख खिलाडियों का दबदबा रहा है। लेकिन फुटबाल और क्रिकेट में मुस्लिम खिलाड़ियों ने खूब नाम कमाया। पिछले कुछ सालों से मुस्लिम खिलाडियों की सख्या लगातार घटी है, जोकि राष्ट्रीय चिंता का विषय है। सम्भवतया खेल ही ऐसा क्षेत्र है जहां धर्म और राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है। ध्यान चंद और बलबीर के गोलों पर हिन्दू मुस्लिम , सिख ईसाई और पूरा देश झूमा तो असलम शेर, जफ़र और शाहिद के खेल को करोड़ों भारतवासियों ने सराहा। इसलिए क्योंकि खेल में जाति और धर्म विशेष के लिए कोई जगह नहीं है। यही कारण है की कपिल और गावस्कर के प्रदर्शन पर झूमने वालों ने पटौदी,अज़हर, फारुख, दुर्रानी और बेदी को भी सर माथे बैठाया।

देश का एक बड़ा वर्ग मानता है की युवा पीढ़ी को खेलों से जोड़ने से कई समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाती हैं, क्योंकि खिलाडी की कोई जात नहीं होती। वह अपने प्रदर्शन से बड़ा या महान बन सकता है लेकिन वह धर्म समाज जाति जैसी दकियानूसी बातों से बहुत ऊपर उठ जाता है। अतः बेहतर यह होगा की शुरूआती शिक्षा के साथ ही खेल को अनिवार्य विषय बनाया जाए ताकि देश को अच्छे खिलाडी और सभ्य नागरिक मिल सकें।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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