कोई माने या ना माने दिल्ली की फुटबॉल अपने अत्यंत व्यस्त दौर से गुजर रही है। कोई इस दौर को गोल्डन पीरियड कह रहा है तो दूसरा कोई चिलचिलाती धूप और तेज गर्मी से परेशान है और खिलाड़ियों के साथ अन्याय बता रहा है। कुछ सप्ताह पहले पुरुषों की प्रीमियर लीग का समापन हुआ तो सीनियर डिवीजन लीग शुरू हो गई। आधी-अधूरी सीनियर डिवीजन के बीच में ही ए डिवीजन को मैदान में उतार दिया गया और लगे हाथों बी डिवीजन के आयोजन की घोषणा भी कर दी गई है। इस बीच खेलो इंडिया के स्कूली और कॉलेज स्तर के आयोजनों पर भी डीएसए की मुहर जड़ दी गई। दूसरी तरफ महिलाओं के लीग आयोजन भी जारी हैं।
लीग आयोजनों के अलावा अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) के राष्ट्रीय टूर्नामेंट में भी दिल्ली की टीमें बराबर भागीदारी कर रही है। टीमों का आना-जाना निरंतर चल रहा है और कुछ आयोजनों में दिल्ली की टीमों ने शानदार प्रदर्शन किया है। मसलन संतोष ट्रॉफी और आयु वर्ग के आयोजनों, दिल्ली की फुटबॉल छाप छोड़ने में सफल रही है।
बेशक, देश की राजधानी की फुटबॉल खूब चर्चा में है। टीमों का आना-जाना जारी है। खिलाड़ियों को बस और रेल के सफर से मुक्ति मिली है और अधिकांश टीमे जहाज से सफर कर रही है। अर्थात् हर तरफ अमन चैन नजर आता है। लेकिन पिछले कुछ महीनों में डीएसए के अंदरूनी हालात बिगड़ते नजर आ रहे हैं। टीमों के चयन, लीग मुकाबलों में भाग लेने वाले खिलाड़ियों, रेफरियों के स्तर और विभिन्न टीमों को सेवाएं देने वाले कोच और मैनेजर आदि की नियुक्त को लेकर चुगलखोरी जोरों पर है।
हाल ही में गठित एक आयु वर्ग की टीम को लेकर बहुत कुछ कहा सुना जा रहा है। उस टीम में शामिल सत्तर फीसदी खिलाड़ियों के चयन पर उंगलियां उठी है। चुगलखोर कह रहे हैं कि सत्तर फीसदी ने एक दिन भी कैंप (ट्रायल) में भाग नहीं लिया। उनके अलावा तीन-चार खिलाड़ी चोर दरवाजे से चुने गए।
हालांकि पहले भी इस प्रकार के चयन होते रहे हैं। लेकिन जिन टीमों में दिल्ली के अपने खिलाड़ी खोजे नहीं मिल रहे है उन पर कानाफूसी तो होगी ही। हैरानी वाली बात यह है कि आरोप-प्रत्यारोप लगाने वाले खुलकर नहीं बोल रहे। पता नहीं किस बात का डर है?
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Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |