हर साल की तरह इस बार भी रष्ट्रीय खेल अवार्ड पाने वाले खिलाडियों और गुरुओं की कतार में कुछ और नाम जुड़ने जा रहे हैं । यह रस्म साल दर साल निभाई जाती रही है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि खेल अवार्ड रेबडियों की तरह बांटना कहाँ तक ठीक है ? जो सम्मान अभिनव बिंद्रा , नीरज चोपड़ा , सुशील ,योगेश्वर, मैरीकॉम ,विजेंद्र , मीराबाई चानू , रवि दहिया, बजरंग पूनिया जैसे चैम्पियनों को दिया जाता है उसके हकदार सिर्फ राष्ट्रीय टीम का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाडी कैसे हो सकते हैं ? कैसे वे बिना कोई बड़ा पदक जीते खेल रत्न पा जाते हैं? कैसे विदेशी कोचों के एकाधिकार के चलते हमारे देसी कोच द्रोणाचार्य अवार्ड का लाली पाप पा जाते हैं ?
चलिए मान लिया कि ओलम्पिक में बेहतरीन प्रदर्शन के बाद अर्जुन और खेल रत्न अवार्ड रेबडियों की तरह बाँट दिए गए लेकिन द्रोणाचार्य अवार्ड बांटते हुए जिम्मेदार लोगों ने इतना भी नहीं सोचा कि खुद सरकार और साईं ने अपने गुरुओं और कोचों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है । हॉकी फुटबाल, एथलेटिक, कुश्ती, जुडो, मुक्केबाजी, तैराकी और तमाम खेलों में विदेशी कोच हमारे खिलाडियों को सिखा पढ़ा रहे हैं । स्वदेशी का नारा बुलंद करने वाली सरकारों का हाल यह है कि देसी कोच उन्हें फूटी आँख नहीं भाते । हाँ जब द्रोणाचार्य अवार्ड देने की बात आती है तो खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण में बड़ी पैठ रखने वाले सम्मान ले उड़ते हैं । तारीफ़ की बात यह है कि सम्मान पाने वालों में कई नाम ऐसे भी होते हैं जिनको कोई जानता तक नहीं ।
राष्ट्रीय खेल अवार्डों से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का नाम हटा कर हॉकी जादूगर मेजर ध्यान चंद का नाम जोड़ने का फैसला इस देश के खेल प्रेमियों ने चुपचाप सह लिया लेकिन जब देश के खेलों के सर्वे सर्वा विदेशी कोचों को बना दिया गया है तो अपनों को द्रोणाचार्य अवार्ड बांटना कहाँ तक न्यायसंगत है ? कुछ पूर्व खिलाडी ,कोच और खेल प्रेमी चाहते हैं कि विदेशी कोचों को भी सम्मान में हिस्सेदार बना दिया जाए ।
भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो पिछले दो दशकों से अधिकांश भारतीय खेल विदेशी कोचों के चंगुल में फंसे हैं, जोकि लाखों करोड़ों कमा रहे हैं । यह भी सही है कि जिन खेलों में भारतीय खिलाडी ओलम्पिक पदक जीत रहे हैं उनमें से ज्यादातर के कोच भारतीय हैं । मसलन
कुश्ती, बैडमिंटन, वेटलिफ्टिंग अदि खेलों में हमारे अपने कोच ज्यादा प्रभावी रहे हैं लेकिन देश के खेल आका उनके सर पर विदेशी कोच बैठा देते हैं । नतीजन हमारे अपने कोच अपनी तौहीन से बेहद खफा हैं ।
कुछ द्रोणाचार्यों की राय में कोई भी खुद्दार गुरु ऐसे अवार्ड से कदापि संतुष्ट नहीं होगा । लेकिन दूसरी तरफ आलम यह है कि द्रोणाचार्य अवार्ड पाने के लिए होड़ लगी है । हालत यह है कि एक कामयाब खिलाडी के नाम पर दो और अधिक द्रोणाचार्य अवार्ड बांटे जा चुके हैं । यह हाल तब है जबकि भारतीय खिलाडियों की बागडोर विदेशी हाथों में है और अपने कोच बस उनके पिछलग्गू बन कर रह गए हैं | बस द्रोणाचार्य पाकर खुद को धन्य मान लेते हैं ।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |