‘रोजर बिन्नी का सौरभ गांगुली की जगह भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का अध्यक्ष बनना तय है और यह भी तय है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सुपुत्र जय शाह बोर्ड सचिव बने रहेंगे । उधर केंद्रीय खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के छोटे भाई अरुण सिंह धूमल आईपीएल के चेयरमैन और महाराष्ट्र के भाजपा नेता आशीष शेलार नए कोषाध्यक्ष बनाए गए हैं |’
क्रिकेट या भारतीय खेलों में जो कुछ चल रहा है मात्र खबर नहीं बल्कि उस परम्परा का निर्वाह है जोकि आज़ादी के बाद से चली आ रही है। जिसकी लाठी भैंस उसी की, इस तर्ज पर देश में खेलों का कारोबार चलता आया है और शायद आगे भी चलता रहेगा । हालांकि अधिकांश खेलों में सत्तारूढ़ दल के नेता मंत्री अपना राजपाट स्थापित कर चुके हैं लेकिन क्रिकेट में राजनीति होने पर शोर तो मचेगा, क्योंकि क्रिकेट की हस्ती ऊंची है।
सौरभ गांगुली का हटना या हटाया जाना लगातार तूल पकड़ रहा है | तृण मूल कांग्रेस और कांग्रेस पार्टी ने बाकायदा भाजपा के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है । विपक्ष का आरोप है कि गांगुली का अपराध यह है कि उसने ममता दीदी का दामन पकड़ कर भाजपा से पन्गा लिया है। उसे हटाया जा रहा है जबकि जय शाह को जारी रखने दिया गया है। लेकिन यह सब भारतीय खेलों में नया नहीं है ।
वह ज़माना चला गया जब खेल और राजनीति दो अलग किनारे माने जाते थे । लेकिन धीरे धीरे खेल और राजनीति करीब आए और अब खेल पूरी तरह राजनेताओं की जेब में चले गए हैं । हर खेल संघ और संगठन में जहां नज़र डालो जिस किसी खेल को देखो उस पर राजनेता और उनके परिवार के लोग सवार हो चुके हैं ।
भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो शुरूआती वर्षों में अधिकांश खेल सच्चे और अच्छे पदाधिकारियों और छोटे बड़े उद्योगपतियों के सहयोग और टीम भावना से आगे बढे । स्वर्गीय अश्वनी कुमार, जगमोहन डालमियां जैसे समर्पित प्रशासकों के मार्गदर्शन से उनके खेल पहचान बनाने में सफल रहे यह भी कहा जाता है कि गांगुली की कामयाबी में जगमोहन डालमियां का भी बड़ा हाथ रहा । अर्थात भारतीय खेलों में राजनीति शुरू से ही पैठ जमा चुकी थी ।
इसमें दो राय नहीं कि सरकारों के सीमित सहयोग के साथ साथ खेल संघों और उनकी छोटी इकाइयों ने उद्योगपतियों और नेताओं की शरण लेनी शुरू की और इस बदलाव से कुछ खेलों को अपनी जरूरतें पूरी करने में मदद मिली । लेकिन फिर एक वक्त ऐसा भी आया जबकि राजनीति के खिलाडी खेलों की पहली जरूरत बन गए । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि देश की सरकारों ने खेलों को गंभीरता से नहीं लिया और खिलाडी साधन सुविधाओं के लिए तरसते रहे।
अक्सर देखा गया है कि जिन खेलों ने राजनीति के खिलाडियों को दूरी पर रखा उनकी हालत खस्ता होती चली गई । हार कर उन्हें भी किसी नेता सांसद की शरण लेनी पडी और आज अधिकांश खेल राजनेताओं की शरणगाह और चरागाह बन चुके हैं । शायद ही कोई खेल बचा होगा जिसमें किसी राजनीति के खिलाडी का दखल न हो । यह हाल तब हैं जबकि देश की सरकारें खिलाडियों को बहुत कुछ दे रही हैं । वह ज़माना लद चुका है जब भारतीय खिलाडी नंगे पाँव , भूखे पेट थर्ड क्लास की यात्रा करने को विवश थे । अब सरकारें उन्हें लाखों करोड़ों दे रही हैं , विदेशी कोचों पर करोड़ों खर्च किए जा रहे हैं और खिलाडियों को विदेशों में ट्रेनिंग के लिए भेजा जा रहा है ।
यह भी देखने में आया है कि जैसे जैसे साधन सुविधाएं बढ़ रही हैं खेल और राजनीति भी करीब आते जा रहे हैं । बेशक, सरकारें नेता चलाते हैं और अब उन्होंने खेलों को चलाना और खिलाडियों को अपना बनाना भी सीख लिया है। शायद खेलों की दुखती राग पकड़ ली है । बीसवीं सदी के आख़री दो दशकों में भारतीय खेलों ने नेताओं की भर्ती का जो खेल शुरू किया था वह अब रंग दिखाने लगा है । हर खेल नेताओं , उनके बेटे बेटियों और भाई भतीजों की जेब में समाता जा रहा है । शायद ही कोई खेल बचाहोगा जिसमें राजनेताओं का दखल न हो । पता नहीं खेलों का यह राजनीतिकरण किस ओर जा रहा है लेकिन पिछले अनुभव यह भी बताते हैं कि जिन खेलों पर नेताओं कि पकड़ मजबूत हुई , उनमें से ज्यादता पनप नहीं पाए |
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |