क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान
देश को आज़ाद हुए 75 साल हो गए हैं और इस अवधि में यदि भारतीय खेलों ने कहीं कुछ खोया है तो हॉकी का नाम सबसे पहले आता है । गुलाम भारत ने आज़ादी पूर्व ही इस खेल में अपनी पहचान बना ली थी जोकि बाद के 20 सालों तक कायम रही लेकिन पीछे मुड़ कर देखें तो आधी सदी भारतीय हॉकी के पतन की कहानी बयान करती है । हैरानी वाली बात यह है कि अब प्रदर्शन में गिरावट के साथ साथ हॉकी अपने चाहने वालों से भी दूर हो रही है
भारत ने आठवां और आखिरी ओलम्पिक स्वर्ण पदक 1980 में अमेरिकी बायकाट के चलते जीता था , क्योंकि पांच बड़े हॉकी राष्ट्रों ने ओलम्पिक बायकाट किया था । लेकिन दिन पर दिन और साल दर साल भारतीय हॉकी गिरती चली गई और आज आलम यह है कि टोक्यो में जीते झुनझुने को लेकर हॉकी आका और हॉकी प्रेमी पगलाए फिर रहे हैं । हॉकी फेडरेशन से हॉकी इंडिया का गिरगिटिया रंग बदलने वाले भारतीय हॉकी के कर्णधार यह भूल रहे हैं कि भारतीय हॉकी की अभी वापसी नहीं हुई है । हॉकी इंडिया में क्या कुछ चल रहा है यह बताने कि जरुरत नहीं है । हॉकी समाज जान चुका है कि इस तथाकथित राष्ट्रीय खेल पर भरोसा करना भारी भूल होगी ।
एक सर्वे से पता चला है कि लोकप्रियता के मामले में हॉकी का ग्राफ निरंतर गिर रहा है और क्रिकेट, फुटबाल, कुश्ती, मुक्केबाजी आदि खेलों के बाद ही भारतीय खेल प्रेमी हॉकी को आंकते हैं । ऐसा इसलिए है क्योंकि पिछले बीस सालों में हॉकी को सुधारने के नाम पर जो प्रयोग शुरू हुए उनका प्रतिकूल असर हुआ है । यह सही है कि खिलाडियों को हर प्रकार कि सुविधाएं मिली, उन्हें लगातार विदेश दौरे कराए गए और विदेशी कोच उन्हें सिखा पढ़ा रहे हैं । लेकि हॉकी के चाहने वालों को क्या मिला ?
आम हॉकी प्रेमी से पूछें तो वह कहता है कि हॉकी इंडिया के गठन के बाद से खिलाडी, देश के हॉकी मैदानों और हॉकी प्रेमियों से दूर हो गए हैं । कुछ साल पहले तक राजधानी के नेशनल स्टेडियम और शिवाजी स्टेडियम में अनेकों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजन होते थे , जिन्हें देखने के लिए हजारों हॉकी प्रेमी आते थे लेकिन अब दिल्ली से जैसे यह खेल गायब हो गया है । नेहरू हॉकी , शास्त्री हॉकी और रणजीत सिंह हॉकी टूर्नामेंट महज मज़ाक बना कर रख दिए गए हैं । इन आयोजनों में भाग लेने के लिए देश के स्टार खिलाडी नहीं आते या हॉकी इंडिया के तुगलकी फरमान के चलते उनकी भागीदारी सम्भव नहीं हो पाती । नतीजन हॉकी के चाहने वालों ने स्टेडियम और खेल मैदानों से नाता तोड़ लिया है । श्मशान बने ज्यादातर स्टेडियम चूँकि खिलाडी की पकड़ से भी दूर हो गए हैं इसलिए देश में अच्छे और स्तरीय खिलाडियों का अकाल सा पड़ गया है ।
कुछ पूर्व खिलाडियों के अनुसार हॉकी के चाहने वालों की संख्या इसलिए घट रही है क्योंकि उनके स्टार खिलाडी विदेशों में या भुवनेश्वर और बंगलौर तक सीमित कर दिए गए हैं । जो खिलाडी एक बार राष्ट्रीय कलर पहन लेता है वह हमेशा हमेशा के लिए आम हॉकी प्रेमी से दूर हो जाता है । नतीजन हॉकी पूरे देश का खेल नहीं रह गया है , खिलाडियों को नौकरियां नहीं मिल रहीं क्योंकि विभिन्न विभाग जान गए हैं कि नौकरी देने के बाद खिलाडी सिर्फ राष्ट्रीय टीम तक ही सिमट कर रह जाएगा और उसे देश में आयोजित होने वाले टूर्नामेंट्स में भाग नहीं लेने दिया जाएगा । ज़ाहिर है हॉकी इंडिया की करनी और कथनी खेल और खिलाडियों पर भारी पड़ रही है |
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |