पचास साल पहले सन् 1975 में हॉकी विश्व कप जीतने वाली टीम और उसके खिलाड़ियों को याद किया जाना सराहनीय कदम है। लेकिन क्या कभी इस देश के हॉकी कर्णधारों, हॉकी के ठेकेदारों और पूर्व खिलाड़ियों ने यह सोचने का प्रयास किया है कि आज हम कहां हैं और क्यों अब चैंपियन खिलाड़ी तैयार नहीं कर पा रहे? भले ही हमने लगातार दो ओलम्पिक में कांस्य पदक जीते हैं लेकिन 1980 के मॉस्को ओलम्पिक में गोल्ड जीतने के 45 साल बाद भी हमारी हैसियत चैम्पियन जैसी नहीं रह गई है।
हाल ही में आयोजित सम्मान समारोह में हॉकी इंडिया ने पूर्व चैम्पियनों और वर्तमान खिलाड़ियों को एक मंच पर सम्मानित किया। वही, घिसा-पिटा राग अलापा गया और सभी ने भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग की वापसी का भरोसा व्यक्त किया लेकिन किसी के मुख से भी वो आत्मविश्वास भरे शब्द सुनाई नहीं दिए, जिनके चलते हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिलाने का दावा किया जाता रहा है।
सच तो यह है कि 150 करोड़ की आबादी वाले देश का कोई राष्ट्रीय खेल नहीं है। हां, अघोषित तौर पर हम क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल मान चुके हैं। क्रिकेट की लोकप्रियता को देखते हुए कोई भी इस पर कोई सवाल नहीं करेगा। सच तो यह है कि क्रिकेट पूरे देश और दुनिया का खेल बन चुका है और भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों ने अपनी उपलब्धियों से हॉकी को बहुत पीछे धकेल दिया है। क्रिकेट आज जन-जन और हर एक बच्चे और युवा का खेल बन चुका है और हॉकी की हालत किसी से छिपी नहीं है। अफसोस की बात यह है कि हॉकी चार-छह राज्यों तक सिमट कर रह गई है। स्थानीय और राज्य स्तर के आयोजन ठप्प हो गए हैं जबकि क्रिकेट गली कूचे से लेकर, पंचायत, जिला और राष्ट्रीय स्तर पर धूम धड़ाका मचा रहा है। और हां, अब तो क्रिकेट भी ओलम्पिक (2028) में धमक रहा है। ऐसे में हॉकी को फिर से सोचने विचारने की जरूरत है ताकि फिर से पचास साल पुरानी हेकड़ी दिखाने की जरूरत न पड़े। एक और विश्व कप और ओलम्पिक गोल्ड हॉकी को फिर से पहले सी लोकप्रियता और सम्मान दिला सकता है।
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Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |