जीत शानदार लेकिन इतराने की जरूरत नहीं

saff championship 2023

“भारत ने नौवीं बार सैफ चैंपियनशिप का खिताब जीता”, ‘ अब विश्व कप दूर नहीं ‘, करलो दुनिया मुट्ठी में ‘ समाचार पत्र पत्रिकाओं और खासकर सोशल मीडिया पर यह खबर प्रमुखता के साथ छापी गई, जिसके लिए देश के प्रचार माध्यम धन्यवाद के पात्र हैं। इसलिए क्योंकि क्रिकेट के दबदबे वाले देश में अन्य खेलों की सुख देने वाली खबरें प्राय कम ही देखने सुनने को मिलती हैं। लेकिन क्या सैफ कप जीतना बड़ी उपलब्धि है? क्या यह खिताब जीत कर भारतीय फुटबाल की शान में चार चांद लग गए हैं और क्या सचमुच जश्न मनाने का वक्त आ गया है?

पीछे चलें तो भारत ने पहली बार 1993 में सैफ खिताब जीता था और कुछ एक अवसरों को छोड़ अब तक भारत ने दक्षिण एशिया के देशों में अपना दबदबा बनाए रखा है। सैफ और कुछ एक अन्य निम्न स्तर के घरू आयोजनों में भारत ने खिताब जीते लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं लगा की भारतीय फुटबाल अपने खोए गौरव को पाने के लिए आगे बढ़ रही है। भले ही सैफ कप में अपनी विश्व और एशियन रैंकिंग के साथ न्याय किया लेकिन 40 स्थान पिछड़े कुवैत को बमुश्किल हराने के बाद यह कहना कि हमारी फुटबाल तरक्की कर रही है, गले नहीं उतर रहा।। यदि कुछ देखने लायक और ध्यान देने लायक रहा तो दर्शकों का हजारों की तादात में मैच देखना और फुटबाल के जुनून का लौटना।

अपनी मेजबानी और अपने माहौल में खिताब जीतना इसलिए बड़ी उपलब्धि नहीं क्योंकि सेमीफाइनल और फाइनल में टाई ब्रेकर में जीत पाए। बेशक, गोल कीपर गुरप्रीत संधू टूर्नामेंट के हीरो रहे। कप्तान सुनील क्षेत्री, चांगटा, झिंगन और कुछ एक अन्य खिलाड़ियों ने अपनी ख्याति के अनुरूप प्रदर्शन किया । फिरभी, भारतीय फुटबाल के लिए इतराने जैसा कोई कारण फिलहाल नजर नहीं आता। कुवैत और लेबनान एशिया की निचले रैंकिंग की टीमें हैं और पहली बार सैफ चैंपियनशिप में शामिल की गई । अन्य देशों में नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, भूटान, मालदीव की फुटबाल हैसियत भारत से हल्की है। कुल मिला कर चैंपियन को अभी लंबा सफर तय करना है।

आज की पीढ़ी के लिए अपनी फुटबाल की हर जीत स्वागत योग्य हो सकती है लेकिन उनके बाप दादा ने भारतीय फुटबाल को एशिया पर राज करते देखा है। ओलंपिक में यूरोपीय चैंपियनों से टकराने का कौशल भी अपने खिलाड़ियों ने कई बार दिखाया। लेकिन पिछले पचास सालों में भारतीय फुटबाल लगातार पिछड़ती गई और तब तक कोई गलत फहमी न पालें जब तक एशियाड में 1951 और 1962 की तरह विजेता नहीं बन जाते या पहले दस देशों में शामिल होने का सम्मान हासिल नहीं कर लेते।

जहां तक वर्तमान टीम की बात है तो कुछ अच्छे खिलाड़ी हैं लेकिन ज्यादातर को लड़ने भिड़ने और रेफरी के फैसलों पर बिगड़ने की आदत को सुधारना होगा। हो सकता है कोच इगोर से उन्होंने यह आत्म घातक सबक सीखा हो, जोकि लगातार दो लाल कार्ड देखने के कारण दर्शक दीर्घा से अपने खिलाड़ियों का मार्ग दर्शन कर रहे थे। बेशक, जीत का जश्न मनाएं लेकिन गलत फहमी से बच कर रहें।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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