दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक बार फिर राष्ट्रीय चुनाव महोत्सव के लिए तैयार है। बड़े छोटे दल , भारी भरकम कद लाठी वाले नेता, कम चर्चित मुखौटे, दाग दार और बेदाग सभी अपनी जीत का दावा लेकर मैदान में उतर रहे हैं। कोई तमाम सीटें हथियाने का दम भर रहा है तो कुछ एक अपनी सीट बचाने के जुगाड में लगे हैं।
चूंकि देश की राजनीति का रंग ढंग और नीयत में पिछले 75 सालों में बड़ा बदलाव आया है इसलिए दावे प्रतिदावे भी बदले हैं। कोई देशवासियों को मुफ्त राशन , बिजली, पानी और आम जिंदगी की जरूरतें बांटने का दम भर रहा है तो कोई भारत को विश्व विजेता और अमेरिका, जर्मनी , इंग्लैंड बनाने का आश्वासन दे रहा है। लेकिन हमेशा की तरह खेल और खिलाड़ियों के मौलिक अधिकारों और उनकी सुरक्षा की बात किसी भी दल की प्राथमिकता में शायद ही हो। फिलहाल राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में खिलाड़ियों को नौकरियां देने, उन्हें राजनीति के गुंडो और भ्रष्टाचारियों से बचाने का वादा किसी भी पार्टी ने नहीं किया है। हो सकता है इस लेख के छपने तक कुछ दलों और दलदल में फंसे उनके नेताओं की अंतरात्मा जाग जाए।
देश के सभी राजनीतिक दल मौके बेमौके भारत को खेल महाशक्ति बनाने, ओलम्पिक पदकों का अंबार लगाने और खेलों के जरिए देशवासियों को उच्च स्वास्थ्य देने और आम भारतीय का जीवनस्तर उठाने का दम भरते आए हैं। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और सबसे बड़ी आबादी वाले देश का हाल यह है कि हॉकी के पदकों को छोड़ दें तो सौ साल के ओलम्पिक खेलों में मात्र दो स्वर्ण अभिनव बिंद्रा और नीरज चोपड़ा ही जीत पाए हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि खेलों के लिए देश की सरकारें कभी भी गंभीर नहीं रहीं। हां, इतना जरूर है कि जब कभी चुनाव सर पर होते हैं हर नेता देश में खेलों की हालत सुधारने की कसम खाता है और सत्ता पाने के बाद सब कुछ भूल जाता है।
इस बार के चुनावों में खेलों को बढ़ावा देने से ज्यादा महत्वपूर्ण खिलाड़ियों और खासकर महिला खिलाड़ियों की सुरक्षा और उन्हें बेशर्म और भ्रष्ट नेताओं, कोचों और अधिकारियों से बचाने का मुद्दा गर्माया हुआ है। देश का आम खिलाड़ी और उसके माता पिता सरकारों से अपने बेटे बेटियों को सुरक्षा देने और उनकी लाज बचाने की गारंटी चाहते हैं। कोई है जो देश की खिलाड़ी बेटियों का मान सम्मान बढ़ाने और उन्हें संपूर्ण सुरक्षा देने को अपनी प्राथमिकता में स्थान दे सके ?
शायद ही कोई ऐसा खेल होगा, जिसमें महिला खिलाड़ियों और कोचों के साथ शारीरिक शौषण की शर्मनाक घटनाएं नहीं हुई हों। एक अनुमान के अनुसार सैकड़ों मामले खेल मंत्रालय, भारतीय खेल प्राधिकरण, राज्य इकाइयों, राष्ट्रीय खेल संघों, थानों और अदालतों में चल रहे हैं। पिछले कुछ सालों में महिलाओं के साथ व्यविचार बढ़ा है, लेकिन वोटों की राजनीति करने वालों ने इस मुद्दे को आज तक गंभीरता से नहीं लिया है। तो फिर वे वोट पाने के हकदार क्यों हैं?
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |