विदेशी कोचों को द्रोणाचार्य क्यों और क्यों नहीं?

Dronacharya to foreign coaches

टोक्यो ओलम्पिक में भारत के लिए सात पदक जीतने वाले और बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले खेलों और खिलाड़ियों के कोचों और गुरुओं में से किस किस को द्रोणाचार्य खेल अवॉर्ड से सम्मानित किया जाएगा, जल्द पता चल जाएगा। लेकिन इस बार सब कुछ इतना आसान नहीं होने वाला क्योंकि पैरा खिलाड़ियों ने रिकार्ड तोड़ पदक जीत कर अपने कोचों के दावे को पहले से ज़्यादा मजबूत कर दिया है। ज़ाहिर है अवॉर्ड कमेटी और खेल मंत्रालय का काम ख़ासा पेचीदा हो गया है। सबसे बड़ा पेंच विदेशी कोचों को लेकर फँसा है, क्योंकि कुछ खेल संघ और खिलाड़ी मानते हैं कि भारतीय खेल इतिहास के सबसे सफल खेलों में बड़ी भूमिका निभाने वाले विदेशी कोच भी द्रोणाचार्य अवॉर्ड पाने के हकदार बनते हैं।

हालाँकि भारतीय खेलों में विदेशी कोचों की नियुक्ति का चलन बहुत पुराना है लेकिन क्यूबा के मुक्केबाजी कोच बीआई फर्नान्डीज इकलौते ऐसे कोच हैं जिन्हें द्रोणाचार्य अवॉर्ड देकर सम्मानित किया गया था। 1992 के बार्सिलोना ओलम्पिक खेलों से लेकर अगले कई सालों तक वह भारतीय टीम के राष्ट्रीय कोच रहे। ओलम्पिक पदक विजेता विजेंद्र सिंह के अलावा अखिल कुमार, डिंको सिंह, गुरचरण सिंह, देवराजन और अन्य कई मुक्केबाज़ों को गुर सिखाने में उनका बड़ा हाथ रहा। 2012 के लंदन ओलम्पिक में शानदार प्रदर्शन के बाद खुद खेल मंत्रालय और मुक्केबाज़ी फ़ेडरेशन ने स्पेशल केस के तहत फर्नान्डीज के लिए द्रोणाचार्य अवॉर्ड की सिफारिश की जिसे मान लिया गया। इस प्रकार क्यूबन कोच द्रोणाचार्य पाने वाले पहले और आख़िरी विदेशी हैं।

टोक्यो ओलम्पिक के अभूतपूर्व प्रदर्शन को लेकर जहाँ एक ओर भारत में विदेशी कोचों के प्रति अलग राय बनी है तो बहुत से खिलाड़ी और खेल जानकार यह भी कहने लगे है कि विदेशी कोचों को भी देश के सबसे बड़े खेल गुरु के पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए। टोक्यो ओलम्पिक से पहले विदेशी कोचों को लेकर प्रायः यह कहा जाता रहा कि उन पर व्यर्थ पैसा बहाया जा रहा है और अपने कोचों की अनदेखी हो रही है। लेकिन टोक्यो ओलम्पिक के बाद वही लोग असमंजस की स्थिति में हैं।

फ़ैसला सरकार के खेल मंत्रालय, अवॉर्ड कमेटी, आईओए और खेल फ़ेडरेशन को करना है लेकिन विदेशी की माँग बढ़ रही है। कई चैम्पियन तो खुल कर कह रहे हैं कि उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ विदेशी कोच चाहिए।

देश के सात पदक विजेता खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो भारत के इकलौते स्वर्ण विजेता नीरज चोपड़ा ने आस्ट्रेलिया के दिवंगत गैरी कालवर्ट, जर्मनी के महान चैम्पियन उवे हार्न और आस्ट्रेलिया के क्लास वर्तोनीट्ज़ से सीखा पढ़ा और चैम्पियन बने। पहलवान रवि दहिया और बजरंग पूनिया ने देसी और विदेशी कोचों से ट्रेनिंग ली। दहिया को इटली के कमाल मालिकोव और पूनिया को जार्जिया के शाको वेंतिनी ने सिखाया। कांस्य पदक विजेता लवलीना ने इटली के कोच राफ़ेल बर्गमास्को की देखरेख में ट्रेनिंग ली तो दूसरा ओलम्पिक पदक जीतने वाली बैडमिंटन क्वीन पीवी सिंधु कोरियाई कोच पार्क ताईसंग की मौजूदगी में पदक जीतीं। सिर्फ़ मीरा बाई चानू ही एकमात्र ऐसी पदक विजेता है, जिसने अपने भारतीय कोच विजय शर्मा पर भरोसा किया और ओलम्पिक में पहला रजत पदक जीत कर भारत का ख़ाता खोला था।

देखा जाए तो विदेशियों में सबसे चर्चित हॉकी कोच रहे। महिला टीम के कोच नीदरलैंड के शार्ड मारीन और पुरुष कोच ग्राहम रीड को भारतीय हॉकी का भाग्य विधाता माना जा रहा है। ख़ासकर, रीड के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होने भारतीय हॉकी की रीढ़ को नई ताक़त दी है। शायद इसी लिए भारतीय हॉकी में विदेशी की ज़रूरत महसूस की जाने लगी है। उन्हें द्रोणाचार्य दिए जानेकी माँग भी जोरों पर है। लेकिन क्या विदेशियों को सम्मान मिल पाएगा? ऐसा कम ही मुमकिन है।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
Share:

Written by 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *