पता नहीं दिल्ली के अख़बारों को कौनसी आग लगी है ?

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भारत सरकार देश को खेल महाशक्ति बनाने के लिए कड़ी मेहनत और जोर शोर से नारे बाजी कर रही है । जब कभी हमारा कोई खिलाडी पदक जीत कर लौटता है तो तमाम नेता , मंत्री , प्रधान मंत्री खिलाडियों के साथ समय बिताने का कोई मौका नहीं छोड़ते । विजेताओं को खूब मान सम्मान और धन दौलत से लाद दिया जाता है । उन्हें उच्च पदों की नौकरियां दी जाती हैं । बेशक इस प्रकार खिलाडियों का मनोबल बढ़ाने से देश में खेलों के लिए माहौल बनाने में मदद मिलती है ।

दूसरी तरफ खिलाडियों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे उसकी उपलब्धियों के लिए यदा कदा ही याद किया जाता है । देश के लाखों खिलाडी ग्रासरूट स्तर पर खेल रहे हैं और इन में से ही ज्यादातर भविष्य के चैम्पियन बनते हैं लेकिन छोटे स्तर पर खेलने वाले और रिकार्ड तोड़ने वाले खिलाडियों को कोई भी नहीं पूछता । यह सही है की सोशल मीडिया के अस्तित्व में आने और उसके फैलाव से कुछ खिलाडी खबर बन जाते हैं लेकिन इनमे ज्यादातर वो हैं जिनके मां बाप या कोच ऊंची पहुँच रखते हैं । बाकी को कोई नहीं पूछता |

कुछ जाने माने खिलाडियों और खेल हस्तियों से बात चीत करने पर पता चला है कि आम तौर पर वही खिलाडी टीवी चैनलों, अख़बारों और सोशल मीडिया में जगह पाते हैं जिनकी ऊंची पहुँच ऊंची है या ‘अन्य कारण’ से एक अदना खिलाडी को हीरो बना दिया जाता है । खेलों और खिलाडियों को मीडिया में कितना स्थान मिल पाता है इस पर किए गए एक सर्वे से पता चला है कि सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट के बड़े छोटे आयोजन अखबार की खबर बन पाते हैं बाकी खेल बस मुंह ताकते रह जाते हैं । हाँ यदि किसी खिलाडी उसके माता पिता या कोच की पकड़ ऊंची होती है तो उसका हल्का सा प्रदर्शन बड़ी खबर बन जाता है । यही कारण है कि कुछ जाने माने खिलाडी कहते हैं ‘पता नहीं दिल्ली के अखबारों को कौनसी आग लगी है |’

बेशक, भारत में क्रिकेट सबसे लोकप्रिय खेल है और हर माता पिता अपने लाडले और लाड़ली को क्रिकेटर बनाने की होड़ में लगे हैं । उनके छोटे से प्रदर्शन को किसी दैनिक अखबार में छपाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं । यही कारण है कि अखबारों में सिर्फ क्रिकेट छपता है बाकी खेलों के लिए अखबारों के दरवाजे पिछले कई सालों से लगभग बंद हो चुके हैं । खासकर, देश की राजधानी के तथाकथित बड़े अखबार शायद ही कभी स्थानीय हॉकी, फुटबाल, तैराकी, एथलेटिक, वॉली बॉल, बास्केटबाल, तैराकी , कुश्ती, मुक्केबाजी जैसे लोकप्रिय और ओलम्पिक मान्यता प्राप्त खेलों कि खबर को स्थान देते हैं ।

कुछ पूर्व ओलम्पियनों और चैम्पियन खिलाडियों के अनुसार देश के तमाम बड़े छोटे शहरों, महानगरों के समाचार पत्र स्थानीय खेलों को लीड छापते हैं , अपने उभरते खिलाडियों को समुचित स्थान देते हैं लेकिन दिल्ली के अखबार देश की सरकार दिल्ली सरकार, खेल मंत्रालय, भारतीय ओलम्पिक संघ और अन्य खेल संघों की चौधराहट के बीच भी किसी कि परवाह नहीं करते । लाखों -करोड़ों के विज्ञापन खिलाडियों के नाम पर छापे जाते हैं l जो खिलाडी अपनी और अपने मां बाप की मेहनत से नाम सम्मान कमाते हैं उन्हें तो सरकारें भी करोड़ों बाँट रही हैं लेकिन उन्हरते खिलाडियों को पहचान कौन देगा , कौन उनका मनोबल बढ़ाएगा ?

लगभग दर्जन भर ओलम्पियन और अंतर्राष्ट्रीय खिलाडियों के अनुसार पिछले कुछ सालों में अख़बारों ने खेल खिलाडियों के प्रति जो रवैया अपनाया है वह न सिर्फ निंदनीय है अपितु खिलाडियों का मनोबल तोड़ने वाला भी है । खासकर देश की राजधानी के बड़े समाचार पत्र खेल पत्रकारिता भूल गए हैं । या यह भी हो सकता है कि अखबार के मालिक खेलों को दूसरे तीसरे दर्जे के खेल मानते हैं । खासकर स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों कि कोई हैसियत नहीं रही ।

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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