देर से ही सही एक खिलाडी ने भारतीय फुटबाल का शीर्ष पद संभाल लिया है वरना पिछले 85 सालों से राजनीति और सत्ता के खिलाडी भारतीय फुटबाल को अपनी ठोकर पर चलाते आ रहे थे । कल्याण ने भूटिया को 32-1 से हरा कर उसे आईना दिख दिया। लेकिन कल्याण चौबे का सितारा उस समय बुलंद हुआ है जबकि भारतीय फुटबाल अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है । जियाउद्दीन, प्रिय रंजन दास मुंशी और प्रफुल्ल पटेल के कार्यकाल में खोया बहुत कुछ लेकिन पाया कुछ भी नहीं । अपयश और फीफा द्वारा निलंबन भारतीय फुटबाल की अब तक की सबसे बड़ी कमाई रही है । उम्मीद की जानी चाहिए कि एक खिलाडी के हाथों फुटबाल और नीचे नहीं गिरेगी ।
कौन है कल्याण चौबे :
इसमें दो राय नहीं कि बाई चुंग भूटिया के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले कल्याण चौबे का कद भी खासा ऊँचा रहा है टाटा फुटबाल अकादमी से अपने करियर कि शुरुआत करने वाले कल्याण ने मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, जेसीटी और सलगांवकर गोवा जैसे नामी क्लबों के गोलकीपर की भूमिका बखूबी निभाई और खूब नाम कमाया । इन क्लबों को सेवाएं देने से पहले ही उन्होंने नामी खिलाडी और कोच रहे मोहम्मद हबीब की देखरेख में टाटा अकादमी की कई जीतों में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया | बिहार में जन्में और पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के नेता कल्याण चौबे ने लगातार कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ीं और आज उस भारतीय फुटबाल फेडरेशन के अध्यक्ष बन गए हैं , जिसमें सब कुछ अस्त व्यस्त चल रहा है ।
बड़ा नाम क्यों छोटा पड़ गया ?
बेशक, भारतीय फुटबाल में बाई चुंग भूटिया बहुत बड़ा नाम रहा है । भले ही उनके समय में भारत की फुटबाल तेजी से नीचे लुढ़क रही थी लेकिन सैफ देशों में भूटिया का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था । सुनील क्षेत्री के उदय से पहले भूटिया मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, जेसीटी , सलगांवकर और यूनाइटेड सिक्किम जैसे क्लबों में खेल कर तत्कालीन फुटबाल में भारत के स्टार खिलाडी बने । भारत के लिए 104 अंतर्राष्ट्रीय मैच खेल कर 40 गोल जमाने वाले वह सफलतम खिलाडी बने । एक और जहां भूटिया अच्छे खिलाडी माने गए तो खेल में राजनीति का घालमेल करने के लिए उन पर काफी पहले से उँगलियाँ उठती आ रही हैं । भारतीय फुटबाल से जुड़े खिलाडी और कोच भूटिया को बड़ा खिलाडी तो मानते हैं लेकिन उनके घरेलू राज्य सिक्किम ने ही अपने स्टार खिलाडी की उम्मीदवारी का समर्थन नहीं किया । दूसरी तरफ कल्याण को गुजरात और अरुणाचल जैसे प्रदेशों का समर्थन मिलने का मतलब है कि उनकी राजनीतिक पकड़ भूटिया के मुकाबले दमदार रही । कुछ खिलाडियों और अधिकारियों का यहाँ तक कहना है कि जिस शख्स को अपने राज्य में ही पसंद नहीं किया जाता उसे फुटबाल का उच्च पद सौंपना वैसे भी ठीक नहीं था ।
राजनीति का खेल :
यह कहना कि कलयाण चौबे अपने दम पर एआईएफएफ अध्यक्ष बने हैं तर्क संगत नहीं है । सच्चाई यह है कि कुछ दिन पहले तक बाइचुंग भूटिया उनसे ज्यादा चर्चित नाम था लेकिन देश की सबसे बड़ी पार्टी से जुड़े होने का लाभ निश्चित रूप से कल्याण के लिए कल्याणकारी साबित हुआ । सीधा सा मतलब है कि भले ही कोई खिलाडी पहली बार फेडरेशन अध्यक्ष बना है लेकिन यह सब राजनीति के खेल का पुरस्कार ही कहा जाएगा । वरना लोकप्रियता के मामले में बाइचुंग भूटिया बीस ही थे | इतना जरूर है कि भूटिया राजनीतिक मोर्चे पर प्राय नाकाम होते आए हैं और कुछ चुनाव भी हारे हैं | एक और हार उनके खाते में जुड़ गई है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |