भारतीय फुटबॉल आज जहां खड़ी है, वहां से आगे की राह आसान नजर नहीं आती। वैसे भी जो देश बांग्लादेश, नेपाल और अफगानिस्तान जैसे कमजोर प्रतिद्वंद्वियों के सामने असहाय और दीन हीन है, उसकी फुटबॉल के उज्जवल भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती।
आमतौर पर जब भारतीय फुटबॉल की दयनीय हालत के बारे में पूछा जाता है तो घुमा फिरा कर सुई ‘गोल’ पर अटक जाती है। हालांकि पिछले चार-पांच दशकों से भारत दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल में निरंतर पिछड़ रहा है लेकिन आज हालात बद से बदतर हो गए हैँ। अपने खिलाड़ियों की फिटनेस, उनका बॉल कंट्रोल, ड्रिब्लिंग, सटीक पास देने की कलाकारी, उचित समय पर सही पोजिशन और अंतत: गोल जमाने में अपरिपक्वता उपहास का पात्र बन रही है।
फिलहाल हमारे पास सुनील छेत्री जैसा स्ट्राइकर है लेकिन उसके बाद कौन? यह सवाल बीस साल से जस का तस खड़ा है। बाइचुंग भूटिया, आईएम विजयन और जो पॉल अंचेरी के बाद अच्छे फॉरवर्ड और खासकर गोल जमाने वाले कलाकारों की कमी खलती आई है। एक जमाना वह भी था जब भारतीय फुटबॉल के पास पीके बनर्जी, चुन्नी गोस्वामी, नेविल डिसूजा, बलराम, इंदर सिंह, मगन सिंह, नरेंद्र गुरंग, हरजिंदर, सुरजीत सेन गुप्त, साबिर अली, मोहम्मद हबीब और दर्जनों अन्य खिलाड़ियों को गोल जमाने में महारथ हासिल था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तब और आज की भारतीय फुटबॉल की तकनीक और स्तर में बदलाव आया है। फुटबॉल के जानकारों की मानें तो आज हमारी फुटबॉल के कर्णधार, कोच और खिलाड़ी यूरोप और लैटिन अमेरिका की नकल कर रहे हैं, जिसके लिए अकल की जरूरत है। खिलाड़ियों से ज्यादा कसूरवार कोच हैं जो कि फर्जीवाड़े से डिग्री और लाइसेंस पा जाते हैं और फिर अपने सड़े गले ज्ञान से खिलाड़ियों की प्रतिभा और हुनर को बर्बाद कर रहे हैं। रही-सही कसर विदेशी कोच पूरी कर रहे हैं। ऐसे में भला फुटबॉल का भला कैसे हो? कैसे हम बड़ी ताकत बन पाएंगे? जवाब तो ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) के पास भी नहीं है, जो कि भ्रष्टाचार की बैसाखी पर टिकी है।
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Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |