कॉमनवेल्थ खेलों में खिताबी जीतों का रिकार्ड कायम करने वाली ऑस्ट्रेलियाई हॉकी टीम ने भारत के विरुद्ध अब तक खेले गए तीन मुकाबलों में 19 गोल किए हैं, जबकि भारत एक भी गोल नहीं कर पाया। बर्मिंघम खेलों के फाइनल में तो ऑस्ट्रेलिया ने भारतीय टीम को बुरी तरह नचा डाला। इस मैच को देखने के बाद आम भारतीय हॉकी प्रेमी यह सोचने लगा है कि पराजित टीम ने टोक्यो में कांसा कैसे जीत लिया?
दो दिन पहले जो लोग अपनी टीम को सातवें आसमान में बैठा रहे थे अब उनकी बोली भाषा बदल रही है । ज्यादातर कह रहे हैं कि ये टीम भरोसे लायक नहीं रही। हॉकी जानकारों और विशेषज्ञों की मानें तो उन्हें श्रीजेश को छोड़ बाकी भारतीय खिलाडी स्कूली बच्चे या नौसिखिया नजर आए, जिन्होंने बाल रोकना और पास देना भी ढंग से नहीं सीखा । भला हो श्रीजेश का जिसने भारतीय टीम को दर्जन भर गोलों की हार से बचा लिया। लेकिन जब कभी भारतीय हॉकी का इतिहास लिखा जाएगा, बर्मिंघम कॉमनवेल्थ खेलों के फाइनल में भारत की शर्मनाक हार की चर्चा होगी तो श्रीजेश को खलनायक के रूप में पेश किया जाएगा। ठीक ऐसे ही जैसे की एशियाड 82 के फाइनल में पकिस्तान के हाथों हुई दर्दनाक हार के लिए सालों साल गोलकीपर को कोसा गया।
2010 के कॉमनवेल्थ खेलों के बाद टोक्यो ओलम्पिक और अब बर्मिंघम में भारतीय हॉकी की ऑस्ट्रेलिया ने जिस प्रकार फजीहत की है उसके लिए सिर्फ और सिर्फ खिलाडी जिम्मेदार हैं। कोच और सपोर्ट स्टाफ हमेशा से बेहतर काम करते आ रहे हैं लेकिन पता नहीं क्यों कंगारुओं को देख कर हमारे ब्ल्यू टाइगर्स को क्या हो जाता है? फाइनल से पहले हमारे खिलाडी और कमेंटेटर कह रहे थे कि भारत पहला गोल्ड जीतने जा रहा है। लेकिन हुआ वही जोकि पिछल कई सालों से होता आ रहा है। जैसे जैसे खेल आगे बढ़ा हमारे बड़बोले कमेंटेटर गिड़गिड़ा रहे थे और भगवान् से कह रहे थे कि काश एक पेनल्टी कार्नर ही मिल जाता।
जिन हॉकी प्रेमियों ने मैच देखा है उन्हें पता होगा कि पूरे मैच में हमारे खिलाडी कहीं नजर नहीं आए। फारवर्ड चल नहीं पाए, मिड फील्ड से सप्लाई नहीं मिली और बोझ तले दबी रक्षा पंक्ति बार बार फ्लॉप हुई। बेचारा श्रीजेश भी आखिर कब तक अडिग रह पाता! उसने भरसक प्रयास किया लेकिन जब बाकी टीम हथियार डाल चुकी थी तो उसकी कोशिश भी बेकार गई। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि आखिर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध ही ऐसा क्यों होता है? क्यों कंगारुओं को देखते ही हमारे खिलाड़ियों के होश फाख्ता हो जाते हैं ? क्यों वे खेलना भूल जाते हैं? क्या किसी झाड़ फूंक की जरुरत है या किसी तांत्रिक को बुलाना पड़ेगा? बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब भारतीय हॉकी के कर्णधारों को देने हैं।
बेशक हार जीत खेल का हिस्सा हैं लेकिन हारने का भी कोई स्तर होता है।
बेशक, भंग हॉकी इंडिया के अधिकारी, टीम कोच और खिलाडी अपने अपने बचाव के लिए बहाने तलाश रहे हैं। कुछ एक मुंह छुपाते फिरेंगे लेकिन एक बात सिद्ध हो गई है कि श्रीजेश को छोड़ एक भी खिलाडी सहानुभूति का पात्र नहीं है। कुछ शुभचिंतक कह रहे हैं कि भारतीय हॉकी की जन्म कुंडली किसी तांत्रिक या ओझा को दिखानी चाहिए ताकि पता चल सके कि ऑस्ट्रिया के सामने हमारे खिलाडियों के हाथपांव और दिल दिमाग शून्य क्यों हो जाते हैं! जरूरी हो तो झाड़ फूंक भी करा लें।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |