भारत खेलों में क्यों पिछड़ा है और खेलों की प्रगति की रफ्तार धीमी क्यों है? कुछ खेल जानकार और विशेषज्ञ कई कारण बता सकते हैं। मसलन भारत एक गरीब देश है, बड़ी आबादी के लिए खेल सुविधाएं जुटाना आसान नहीं है और भ्रष्टाचार के चलते खिलाड़ियों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा।
देश में एक ऐसा वर्ग भी है जोकि स्कूली खेलों को दिशा दे सकता है लेकिन बेरोजगारी का मारा है । इस वर्ग के पास शिक्षा और काबिलियत तो है लेकिन नौकरी नहीं है। ऐसे शिक्षित बेरोजगारों के पास शारीरिक शिक्षा की डिग्री और डिप्लोमा है लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है। उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। दिल्ली, यूपी, राजस्थान, हिमाचल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, बंगाल, दिल्ली, छतीसगढ़ , उत्तराखंड और तमाम राज्यों में हजारों ऐसे युवा हैं।
जहां तक भारतीय खिलाड़ियों की बात है तो ज्यादातर ने स्कूल के शारीरिक शिक्षकों के डंडे, लात घूंसे और गालियां खा कर खेल का पहला और जरूरी सबक सीखा है। उस समय जबकि साधन सुविधाओं की कमी थी और खिलाड़ियों के शिक्षण प्रशिक्षण के अत्याधुनिक तरीके उपलब्ध नहीं थे, इन्ही शिक्षकों ने उन्हें अच्छा खिलाड़ी बनने के गुर सिखाए। लेकिन आज शारीरिक शिक्षक नाम का प्राणी स्कूल प्रशासन की ठगी, बेरोजगारी, शोषण, उपेक्षा और जालसाजी का शिकार हो कर रह गया है।
इसमें दो राय नहीं कि कोरोना काल में सभी क्षेत्रों में बेरोजगारों की तादात में बढ़ोतरी हुई , जिसका सबसे बुरा असर शारीरिक शिक्षकों पर पड़ा। जिन्हें कभी स्कूल की बुनियाद माना जाता था उन्हें पूरी तरह भुला दिया गया। हालांकि अधिकांश स्कूलों में हालात सामान्य हो गए हैं लेकिन शारीरिक शिक्षकों के लिए ज्यादातर स्कूलों के दरवाजे बंद पड़े हैं या उन्हें कम से कम वेतन पर नियुक्त किया जा रहा है। यह हाल उस देश का है जोकि जगत गुरु बनने के सपने देख रहा है।
एक तरफ तो देश की सरकार और राज्य सरकारें भारत को स्वस्थ और खेल मैदान में चैंपियन बनाने के नारे बुलंद कर रही हैं तो दूसरी तरफ शारीरिक शिक्षकों को नीलाम किया जा रहा है, उनकी भावनाओं और लाचारी से खेला जा रहा है। कुछ भुक्त भोगियों के अनुसार अधिकांश स्कूलों में ऐसे शिक्षकों के पद लगभग समाप्त कर दिए गए हैं या चार के स्थान पर मात्र एक दो से काम चलाया जा रहा है। खासकर, प्राइवेट स्कूलों में जम कर शोषण हो रहा है। उन्हें आधे या एक चौथाई वेतन पर नियुक्त किया जा रहा है।
कुछ स्कूल अपने विज्ञापन में ग्रेड पे देने की बात करते हैं लेकिन असल तस्वीर कुछ और होती है। उन्हें यदि सस्ते में कोई शिक्षक मिल जाता है तो स्कूल अपने वादे से मुकर जाता है। उन्हें दिहाड़ी मजदूर से भी कम वेतन मिलता है। तो क्या ऐसे हम विश्व विजेता बन पाएंगे ?
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |