दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनावी बिगुल बज गया है। जीत-हार के समीकरण बनने बिगड़ने लगे हैं। बड़े-छोटे राजनीतिक दलों ने चुनावों पर पूरी ताकत झोंक दी है। इन चुनावों पर भारतीय खिलाड़ियों की नजर भी लगी है। लेकिन उत्सुकता का विषय भारतीय फुटबॉल प्रबंधन है।
भारतीय फुटबॉल प्रेमी जानते ही हैं कि देश में फुटबॉल को संचालित करने वाली शीर्ष इकाई ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) का दामन भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के आरोपों से सना हुआ है। पहले महासचिव शाजी प्रभाकरण पर गंभीर आरोप लगाकर पदमुक्त किया गया और अब खुद अध्यक्ष कल्याण चौबे जाल में फंस गए हैं। उन पर फेडरेशन के पैसों का दुरुपयोग करने का गंभीर आरोप लगा है। एआईएफएफ के पूर्व लीगल प्रमुख नीलांजन भट्टाचार्य ने अपने अध्यक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं और चौबे ने उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया।
भारतीय फुटबॉल की लड़ाई को एशियन फुटबॉल कॉन्फेडरेशन (एएफसी) ने गंभीरता से लिया है। एएफसी ने भारतीय फेडरेशन को मामले के तमाम कागजात पेश करने का फरमान जारी किया है, जिनमें भट्टाचार्य के आरोपों और उन पर की गई कार्रवाई की पूरी रिपोर्ट मांगी गई है।
फुटबॉल हलकों में खुसफुसाहट चल रही है कि शाजी प्रभाकरण को निकालना चौबे को भारी पड़ रहा है। सूत्रों की मानें तो भारी बहुमत से चुनाव जीतने का दावा करने वाली भाजपा पार्टी के सिपाही और पूर्व फुटबॉलर को एआईएफएफ से बाहर कर सकती है। हालांकि एएफसी द्वारा तमाम मामले की जांच के बाद ही चौबे पर कोई कार्रवाई की जाएगी लेकिन फुटबॉल फेडरेशन की करतूतों और राष्ट्रीय टीम के प्रदर्शन से ज्यादातर लोग नाराज हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि भारतीय फुटबॉल में कल्याण चौबे से नाराजों को संख्या लगातार बढ़ रही है। पहले बाईचुंग भूटिया, फिर शाजी प्रभाकरण और अब नीलांजन भट्टाचार्य कतार में खड़े हो गए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि यदि कल्याण चौबे पर एएफसी अनुशासनहीनता का कदम उठाती है तो उन्हें आईओए और फेडरेशन के पद से बेदखल किया सकता है। लेकिन चौबे लगातार खुद को निर्दोष बता रहे हैं और फेडरेशन अध्यक्ष पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से भारतीय फुटबॉल की जग-हंसाई हो रही है। देखते हैं कि ऊंट किस करवट बैठता है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |