संविधान की व्याख्या या सियासी बयानबाजी? उपराष्ट्रपति के बयान पर विपक्ष का वार

Pomegranate 72

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की ओर से न्यायपालिका को लेकर की गई टिप्पणियों का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इस मामले में अब सियासत शुरू हो गई है। राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने धनखड़ की टिप्पणियों की आलोचना करते हुए कहा, ‘यह ‘असंवैधानिक’ है और राज्यसभा के किसी सभापति को कभी भी इस तरह का ‘राजनीतिक बयान’ देते नहीं देखा गया था। सिब्बल ने यह भी कहा कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति विपक्ष और सत्तारूढ़ दल के बीच समान दूरी बनाए रखते हैं और वे ‘पार्टी प्रवक्ता’ नहीं हो सकते।’

उपराष्ट्रपति का इशारा

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों विधेयकों को मंज़ूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए समय सीमा तय करने को कहा था. उप राष्ट्रपति ने इसकी ओर इशारा करते हुए कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 एक ऐसा परमाणु मिसाइल बन गया है जो लोकतांत्रिक ताक़तों के ख़िलाफ़ न्यायपालिका के पास चौबीसों घंटे मौजूद रहता है.

उन्होंने कहा, ”भारत के राष्ट्रपति का पद काफी ऊंचा है. राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और उसे बचाने की शपथ लेते हैं. ये शपथ केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल लेते हैं. हाल ही में एक फ़ैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया. आख़िर हम कहां जा रहे हैं. देश में हो क्या रहा है? हमें ऐसे मामलों में बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है.”

डीएमके ने न्यायपालिका पर उप राष्ट्रपति के बयान को ‘अनैतिक’ करार दिया है.

डीएमके राज्यसभा सांसद तिरुचि शिवा ने कहा, ”संविधान के मुताबिक़ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के पास अलग-अलग शक्तियां हैं. जब तीनों अपने-अपने क्षेत्रों में काम करते हैं तो किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सर्वोच्च है. अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए राज्यपालों और राष्ट्रपति की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने निस्संदेह ये बता दिया है संविधान की रक्षा करने का अधिकारी होने से किसी व्यक्ति को ये अधिकार नहीं मिल जाता कि वो संसद में पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक कर रख सकता है. जगदीप धनखड़ की टिप्पणियां अनैतिक हैं. हर नागरिक को यह पता होना चाहिए कि भारतीय संघ में कानून का शासन कायम है.”

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ विवाद

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था।

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