एक दिन पूछ बैठा ख़ुशी से :
तुम कहाँ गयी हो खो ?
वह बोली : तुम्हारे पास ही हूँ तुम देखो तो ।
तुम भूल गए हो मुझे महसूस करना
ख़ुशियों का गागर तुम्हें ही है भरना
ये नदारद हुई अवाम केअरमानो से
झूठी शान से , लूटरे हुकूमरानो से
जब अवाम ही अवाम को खाएगा
हवा की कालाबाज़ारी से कमाएगा
एक दूसरे की बोटी नोचता जाएगा
तो जीवन में ख़ुशी कैसे ला पाएगा
करोना के क़हर से थहमे हुए हो
महामारी के ज़हर से सहमें हुए हो
पैसों की क़िल्लत से गहमे हुए हो
लालच में ग्रसित घिनौने हुए हो
छोड़ो ये घिनौनापन मुझे अपना लो
इंसानियतकी लौ फिर से जला लो
बहती नदी सी फिर मिल जाऊँगी इक कली सी फिर खिल जाऊँगी
मैं बच्चों की किलकारी में हूँ
सूर्य के उभरते उजियारे में हूँ
चंदा की कौमुदी चाँदनी में हूँ
रात के चमकते सितारे में हूँ ।
मैं कोयल के राग में हूँ
सागर के उन्माद में हूँ
दोस्तों के जज़्बात में हूँ
हर्षोल्लास की सौग़ात में हूँ ।
हर सुबह की सहर में हूँ
बलखाती नदी की लहर में हूँ
उपवन की हर महक में हूँ
गीत-संगीत के हर पहर में हूँ
तुम बांसुरी से सीखो सबक़
वो कैसे सबके मन को भाती है
छेद है कितने सीने में उसके
फिर भी सुरीला गाती है
कठिन समय ये निकल जाएगा
न बनो तुम अत्यंत व्यभिचारी
ख़ुशी केवल तब ही पा सकोगे
जब बनोगे फिर से नेक सदाचारी
सुनील की कलम से