सिलसिला था मेरे इस रास्ते से,
अभी भी कहीं गुम है मेरे रास्ते,
फिर भी ऐसा लगता है कि यह,
मंजिल ही थी मेरे लिए।
दिल कुछ और कहता था,
दिमाग कुछ और,
फिर भी चल पड़ी में एक नए रास्ते की ओर,
ऐसे ही सोचने में उलझ सी गई थी मैं,
लेकिन इस सनसनी हवाओं ने कुछ तो रुख बदला है।
वह क्या है पता नहीं…
उस बदलते रुख की और चली गई,
कहां गई पता नहीं…
कुछ देर ठहर कर मैंने सोचा,
और अपने मन से कहा
सीढ़ियां उन्हें मुबारक हो,
जिन्हें सिर्फ छत तक जाना है।
मेरी मंजिल कुछ और है,
रास्ता मुझे खुद बनाना है।
यह जिंदगी है यारों
इंसान को सिर्फ परखना ही नहीं,
समझना भी सीखो।
क्योंकि आजकल लोग वैसे नहीं होते,
जैसे वह नजर आते हैं।
तजुर्बा है मेरा की मिट्टी की पकड़ मजबूत है।
संगमरमर पर तो हमने अक्सर पैर फिसलते हुए देखे हैं।
उस रुख की बदलती हुई हवाओं की ओर जाते जाते मेरी मंजिल का रास्ता नजर आया।
दिल की सुनो रास्ता अपने आप नजर जाएगा,
उस रास्ते की और सच्चे मन से चलते ही जाओ,
चलते ही जाओ।
मंजिल खुद पर खुद मिलेगी और जीने का मजा भी आएगा।।
मन की आवाज कहलाए कलम से
रोज़ी।