EndemolShine group और राम माधवानी फिल्म्स की वेब सीरीज़ ‘आर्या’ एक दिलचस्प कहानी है। आभिजात्य वर्ग के एक परिवार, मित्रों तथा उनके व्यवसाय के इर्द-गिर्द बुनी गई यह कहानी हालाँकि अपने पहले एपिसोड में ज़रा हिचकती और कहानी का सच दिखाने की कोशिश-सी करती लगती है लेकिन जैसे-जैसे आप एपिसोड में आगे बढ़ते चलते हैं, डायरेक्शन, एक्टिंग और कहानी की पकड़ मज़बूत होती जाती है और जल्द ही आर्या मैच्योर होकर आपको और हमें अपने अंत तक ले जाने में कामयाब रहती है।
शादी के खुशहाल माहौल और व्यावसायिक ख़तरों के बीच शुरु होती कहानी अपने अंत तक पहुँचते हुए मुख्य किरदार आर्या के रूप में ख़ुद के कई परत खोलती है। परिवार, रिश्ते, मित्रता और आपसी भावनाओं से बंधे किरदारों के बीच खिलती कहानी ख़ुद को उन्हीं किरदारों के माध्यम से ड्रग डीलिंग, तेज़-तर्रार दिमागी खेलों और ख़तरनाक साज़िशों तक बड़े सधे कदमों से ले चलती है। क्राइम थ्रिलर आर्या बहुत अधिक उठापटक वाली सिरीज़ नहीं है। न आपको इसे देखते हुए बहुत अधिक घटनाओं या मोड़ों को याद रखने का कष्ट उठाना पड़ता है और ना ही संवाद के पीछे के अर्थों को मालूम करने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। किसी तरह की कोई डायलॉग़बाज़ी भी इस सिरीज़ में नहीं है और संवाद बहुत रियल बनाए गए हैं।
आर्या को एक सट्ल वेब सिरीज़ कहा जा सकता है जिसके किरदारों का निर्माण आभिजात्य वर्ग को ध्यान में रखकर किया गया है। जहाँ चरित्र निर्माण काफी सोच-समझकर किया गया है वहीं उन चरित्रों को जीते अदाकारों की अदाकारी भी माशाअल्लाह काफी संजीदा और प्रवाहमय है। मुख्य किरदार निभातीं सुष्मिता सेन की बात की जाए तो उन्होंने परिस्थितिजन्य कई सारी भूमिकाएँ निभाती आर्या को बहुत सलीके से निभाया है। वे जितनी आसानी से एक ख़ुले व नर्मदिल स्वभाव की समझदार माँ और पत्नी की भूमिका अदा कर जाती हैं उतनी ही वास्तविक एक शातिर व कूटनीतिज्ञ ड्रग डीलर के तौर पर भी दिखती हैं। कूटनीतिज्ञ वे अपने माता-पिता व पिता की गर्लफ़्रेंड के सामने भी हैं। एक समझदार गृहिणी से एक अवैध बिज़नेस सम्हालने वाली साहसी महिला के रूपांतरण की सच्चाई को सुष्मिता तथा आर्या की लेखन टीम ने बेहतरीन तरीके से साबित किया है।
आर्या के अलावा जवाहर, संग्राम, तेज़, दौलत, माया, ख़ान यहाँ तक कि आदि, वीर, आरु भी अपनी अदाकारी, अपने वेश-भूषा व संवाद-अदायगी के आइने में बिल्कुल वास्तविक किरदार लगे हैं। हालांकि आर्या के पिता ज़ोरावर की वेश-भूषा तथा लुक इस मामले में ज़रा कमज़ोर है, वे काफी हद तक पीकू के अमिताभ बच्चन की नकल लग रहे हैं।
आर्या का मुख्य किरदार होने के बावज़ूद सिरीज़ में हर किसी को उचित स्पेस और फ़्रेम दिया गया है जिससे कहानी में एकरसता नहीं आती। हर किरदार कहानी को गूँथता है सिवाय ज़ोरावर की गर्लफ़्रेंड के। ऐसा लगता है कि वे सिर्फ ज़ोरावर के नकारात्मक बिंदुओं को उभारने के लिए रखी गईं है। कहानी में उनकी कोई और ज़रूरत नहीं दिखती। इसके अलावा पूरी सिरीज़ में यह भी पता नहीं लगता कि वे ज़ोरावर की गर्लफ्रेंड कब से हैं – तीन महीनों से या तीन साल से? यह जानना इसलिये ज़रूरी था क्योंकि इससे ज़ोरावर के परिवार के मनोविज्ञान को पकड़ा जा सकता था। परिवार के सदस्य उन्हें नापसंद करते हुए भी उन्हें लेकर जितने कूल हैं, वह बात कहीं खटकती है। ख़ास तौर पर जब ज़ोरावर की पत्नी द्वारा अभी भी उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सका है, तो ऐसे में बच्चों द्वारा पिता की गर्लफ़्रेंड के लिए डिप्लोमैटिक होना व्यावहारिक नहीं लगता। इस मामले में ज़ोरावर की पत्नी सिर्फ एक मजबूर औरत दिखती हैं जो शराब और सिगरेट में डूब ख़ुद को ठीक रखने की कोशिश में हैं। उनके बच्चे व पति अक्सर उन्हें ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील होने का एहसास कराते हैं। आश्चर्य है कि वही बच्चे पिता को एकबार भी यह महसूस कराते नहीं दिखते कि वह माँ के साथ अन्याय और ज़्यादती कर रहे हैं। ज़ोरावर खुले आम अपनी गर्लफ्रेंड को प्राथमिकता देते हैं और उनकी पत्नी कुढ़ती हुई यह देखती रहती है क्योंकि उनके पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं। कहीं-कहीं तो जोरावर की गर्लफ़्रेंड को उनके हाव-भाव द्वारा एक बेचारी विक्टिम के तौर पर दिखाया गया है और पत्नी को अकड़ू, ज़िद्दी, खड़ूस। हालांकि इतनी खटास और दुखजनित अहम् होने के बावज़ूद गर्लफ़्रेंड की अनुपस्थिति में ज़ोरावर की पत्नी ज़ोरावर के साथ ऐसे पेश आती हैं मानो उनके बीच कहीं कुछ मसला ही नहीं है। हर किरदार की छोटी-छोटी भावनाओं, मनोविज्ञान व उसके बदलाव को बेहतरीन तरीके से पर्दे पर लाने वाले लेखकों द्वारा ज़ोरावर की पत्नी की साइकोलॉजी डेवेलपमेंट को दिखाने में कंजूसी कर दी गई है। उनके कुढ़न या ‘नखरों’ के पीछे के ‘क्यों’ को दिखाने में किसी को दिलचस्पी नहीं।
आर्या के लिए यह भी कहा जा सकता है कि यह कुछ हद तक एक मेल डोमिनेटिंग कहानी है। दूसरे-तीसरे एपिसोड तक मुख्य कहानी में महिलाओं का कोई ख़ास योगदान नहीं दिखता। पुरुष किरदार अपने निर्णय लेने में उनका संज्ञान नहीं लेते नहीं, ना ही निर्णय के परिणामों से उन्हें सही वक्त पर अवगत कराने की सोचते हैं। महिलाएँ भी इसमें कोई ख़ास रुचि नहीं दिखातीं। सिर्फ एक आर्या है जिन्हें अपने पति का नाम बचाने के लिए मुख्य भूमिका में आना पड़ता हैं, हालाँकि जब वे मैदान में उतरती हैं तो अच्छे-अच्छों की छुट्टी कर देती हैं। कहानी में कुछ ऐसे एकतरफ़ा संवाद भी हैं जो महिलाओं के प्रति अप्रतिष्ठाजनक कहे जा सकते हैं। उदाहरण नहीं दे रही, आप देखेंगे तो ख़ुद ही समझ जाएँगे।
LGBTQ के ऊपर भी व्यंग्य करता एक असंवेदनशील कथन है जब ख़ान का सीनियर उससे जाते-जाते कहता है कि मेरी वॉर्म्थ का ग़लत मतलब मत निकालना। मैं नॉर्मल हूँ।
यह ठीक है कि आप इन कथनों द्वारा उस चरित्र की मानसिकता प्रस्तुत कर रहे हैं पर यह उस मानसिकता का समर्थन ही दिखता है जब सामने वाला किरदार इन बातों का विरोध नहीं करता।
आर्या के अलावा सभी लड़कियों को अपना काम या बात निकलवाने के लिए सेंशुऐलिटी का सहारा लेते ही दिखाया गया है। जवाहर की पत्नी से लेकर वीर की गर्लफ़्रेंड तक। यहाँ तक कि इंदर से काम निकालने के लिये आर्या भी उसकी ‘भावनाओं’ का इस्तेमाल करती है।
‘आर्या’ को यदि तकनीकी तौर पर देखा जाए तो सिनेमेटोग्राफी और कैमरे का काम ख़ूबसूरत है। भीतरी-बाहरी दोनों तरह के लोकेशन परिस्थितियों के अनुसार बिल्कुल फिट बैठते हैं। चरित्रों के हिसाब से किरदारों का चयन भी उचित है। बैकग्राउंड स्कोर भी निराश नहीं करता हालांकि साउंड इंजीनियरिंग को और बेहतर किया जा सकता था, ऐसा इसलिए कह रही हूँ कि कहीं-कहीं संवाद अपने बैकग्राउंड साउंड से अलग सुनाई पड़ते हैं।
एक-दो असंगत प्रतीत होते बिंदु हैं जिन्हें सामने रख रही हूँ : जेल में प्रार्थना के दौरान कैदियों के समूह द्वारा प्रार्थना की सिर्फ दो ही पंक्तियाँ लगातार दुहराना ज़बर्दस्ती और रुका हुआ लगता है। ठीक है कि आप वहाँ दृश्य और शब्दों में विरोधाभास दिखा रहे हैं लेकिन इतने लम्बे दृश्य में दो ही पंक्तियों का लगातार दुहराव – थोड़ा ज़्यादा है।
इसी प्रकार शेखावत का वह आदमी जो माया की पेंटिंग को लेकर भद्दी बातें करता है, वही ग़लत बातें करने के लिये किसी दुकानदार को झिड़कता व थप्पड़ लगवाता है। उसके चरित्र का अचानक यह बदलाव समझ से परे है। बता दूँ कि यही आदमी कुछ एपिसोड्स बाद फिर से माया के साथ भद्दे तरीके से बात करता है।
एपिसोडिक टाइटल्स मुझे मेरे पसंदीदा शो ‘सुपरनैचुरल’ की याद दिलाते हैं। उस शो के टाइटल्स भी संवाद समान हुआ करते थे। टाइटल एपिसोड की आत्मा को उजागर करने में सफल रहे हैं सो निंदा नहीं कर रही। ?
करीब 50 मिनट प्रति एपिसोड वाले 9 एपिसोड के ‘आर्या’ की एक और बात है, वह यह कि क्राइम थ्रिलर होने के बावज़ूद पूरी सिरीज़ में कुल मिलाकर सिर्फ तीन बार गालियाँ बोली गई हैं। इन तीन बार के अलावा और कभी-कहीं इनके होने की ज़रूरत भी महसूस नहीं होती।
अंत में, जिस तरह हर एपिसोड के खत्म होने पर एक ट्विस्ट द्वारा अगले एपिसोड की उत्सुकता बनाने में ‘आर्या’ सफल रही है, उसी तरह सिरीज़ के आख़िरी एपिसोड में भी एक एसएमएस दिखाकर ‘पार्ट टू’ का इशारा और लोभ भी बख़ूबी दे दिया गया है।
मैंने तो देख ली। आप भी देखिए, क्योंकि तमाम ख़ूबियों और ख़ामियों के बीच आर्या को एक रौ में देखना बनता है।
Ms. Pragya Tiwary
Poet, Script and Copy Writer
Great