देश के नेता सांसद और खेलों के कर्णधार भारत को खेल महा शक्ति बनाने के नारे जम कर उछाल रहे हैं। । यह नारा कुछ कुछ ऐसा है जैसे कि देश को वर्षों से आत्मनिर्भर बनाने के दावे किए जा रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि कुछ क्षेत्रों में हम आत्मनिर्भरता के आस पास पहुंचे हैं लेकिन खेलों में हमारी हालत किसी से छिपी नहीं है। भले ही आजादी के बाद कुछ खेलों में हल्की फुल्की प्रगति की है लेकिन हर खेल में हम विदेशी कोचों पर निर्भर हैं। भले ही स्वतंत्रता मिलने से पहले और बाद के दो तीन दशकों में हमारे खिलाड़ियों ने अपने गुरु खलीफाओं के दम पर नाम और पदक कमाए लेकिन पिछले पांच दशकों से विदेशी कोच खेल मंत्रालय, खेल प्राधिकरण और खेल संघों के लाडले बने हुए हैं और परिणाम वही ढाक के तीन पात।
सच तो यह है कि पिछले कुछ सालों में हमारे अपने कोच राष्ट्रीय टीमों से लगभग गायब से हो गए हैं। खासकर , हॉकी और फुटबाल जैसे लोकप्रिय खेलों में अपने कोच खोजे नहीं मिल पाते। हालांकि इन खेलों में अपने कोचों का रिकार्ड शानदार रहा है। लेकिन जब से विदेशी आए हैं और अपने कोचों की छाती पर उनका तांडव शुरू हुआ है भारतीय सफलता का ग्राफ निरंतर गिरा है।
हाल ही में भारतीय मुक्केबाजी से जुड़ा वरिष्ठ कोच इसलिए भाग खड़ा हुआ क्योंकि उसके सिखाने पढ़ाने का हमारे मुक्केबाजों पर कोई असर नहीं पड़ा। फिलहाल एक भी पुरुष मुक्केबाज ओलम्पिक टिकट पाने में सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में लाखों पाने वाले विदेशियों ने वापसी का टिकट कटाना ही बेहतर समझा। मुक्केबाजी अकेला ऐसा खेल नहीं है जिसमें गोरे कोच भारतीय खिलाड़ियों की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे। हॉकी फुटबाल, कुश्ती, तीरंदाजी, बैडमिंटन, जूडो वेटलिफ्टिंग , तैराकी और जिमनास्टिक आदि खेलों में भी नाकामी हाथ लगी है। नतीजन विदेशी भगाओ , स्वदेशी लाओ का नारा हवा में है।
कई खेलों में विदेशी कोचों की अनावश्यक घुसपैठ के बारे में सालों से कानाफूसी चल रही है। हालांकि देश के खिलाड़ियों, कोचों और खेल प्रेमियों में खुल कर बोलने और व्यवस्था को कोसने का साहस नहीं बचा लेकिन कुछ पूर्व खिलाड़ी दबी जुबान में कह रहे हैं कि विदेशियों पर अत्यधिक निर्भरता ठीक नहीं है। कुछ एक खेलों में तो बाकायदा अपने कोचों को जिम्मेदारी सौंपने की मांग की जाने लगी है।
पिछले कुछ महीनों में फुटबाल और महिला हॉकी ने जिस प्रकार का दयनीय प्रदर्शन किया उसे लेकर न सिर्फ खेल प्रेमी हैरान परेशान हैं अपितु कुछ पूर्व खिलाड़ी यहां तक कहने लगे हैं कि विदेशी कोच भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन को नहीं सुधार सकते। भारतीय फुटबाल और हॉकी टीमों को पिछले पांच दशकों से विदेशी सिखा पढ़ा रहे हैं। तुलनात्मक अध्ययन करें तो इन दो लोकप्रिय खेलों में बाहरी कोच कुछ खास नहीं कर पाए।भले ही बैडमिंटन, कुश्ती, मुक्केबाजी, निशानेबाजी जैसे खेलों में छुट पुट पदक मिले हैं लेकिन फुटबाल में लुटिया पूरी तरह डुबो दी गई है। हॉकी और फुटबाल में हमारा डंका तब तक बजता रहा जब तक अपने कोच सिखा पढ़ा रहे थे।
Rajendar Sajwan
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |