पिछले कुछ महीनों में भारतीय खेलों में विदेशी कोचों की विफलता को लेकर काफी कुछ कहा सुना जा रहा है। सच तो यह है कि गोरे कोचों पर से विश्वास उठने लगा है। कई एक कोच और सीईओ हटाए जा रहे हैं या खुद हट रहे हैं।
हाल ही में भारतीय मुक्केबाजी से जुड़े वरिष्ठ कोच इसलिए भाग खड़े हुए क्योंकि उनके सिखाने पढ़ाने का हमारे मुक्केबाजों पर कोई असर नहीं पड़ा। फिलहाल एक भी पुरुष मुक्केबाज ओलम्पिक टिकट पाने में सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में लाखों पाने वाले विदेशियों ने वापसी का टिकट कटाना ही बेहतर समझा। लेकिन हमारे खेल आका कब समझेंगे कि ज्यादातर खेलों में हमारे अपने कोच कहीं बेहतर हैं। तुलनात्मक सर्वेक्षण करें तो अपने कोचों का रिकार्ड कहीं बेहतर रहा है।
मुक्केबाजी अकेला ऐसा खेल नहीं है जिसमें गोरे कोच भारतीय खिलाड़ियों की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे। हॉकी फुटबाल, कुश्ती, तीरंदाजी, बैडमिंटन, जूडो वेटलिफ्टिंग , तैराकी और जिमनास्टिक आदि खेलों में भी नाकामी हाथ लगी है।
नतीजन स्वदेशी कोचों की वापसी को लेकर अभियान सा छिड़ गया है। हॉकी और फुटबाल में विदेशी कोचों की अनावश्यक घुसपैठ के बारे में सालों से कानाफूसी चल रही है। हालांकि देश के खिलाड़ियों, कोचों और खेल प्रेमियों में खुल कर बोलने और व्यवस्था को कोसने का साहस नहीं बचा लेकिन कुछ पूर्व खिलाड़ी और खेल जानकार कह रहे हैं कि विदेशियों पर अत्यधिक निर्भरता ठीक नहीं है। कुछ एक खेलों में तो बाकायदा अपने कोचों को जिम्मेदारी सौंपने की मांग की जाने लगी है।
पिछले कुछ महीनों में फुटबाल और महिला हॉकी ने जिस प्रकार का दयनीय प्रदर्शन किया उसे लेकर न सिर्फ खेल प्रेमी हैरान परेशान हैं अपितु कुछ पूर्व खिलाड़ी यहां तक कहने लगे हैं कि विदेशी कोच भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन को नहीं सुधार सकते। हालांकि कुछ विदेशी आत्मसमर्पण को मजबूर हुए हैं लेकिन तमाम विफलताओं के बावजूद विदेशी का मोह जाते नहीं जा रहा।
इसमें दो राय नहीं कि गोरों के पास देने के लिए बहुत कुछ है लेकिन पौधे से पेड़ बन चुके खिलाड़ियों को समझना और उन्हें हालात के अनुरूप ढालना आसान कदापि नहीं है। हमारे खिलाड़ी स्कूल कालेज में अपने कोचों से सीखते है और जब सीनियर वर्ग में पहुंचते हैं तो उन्हें विदेशी कोचों के भरोसे छोड़ दिया जाता है।
भारतीय फुटबाल और हॉकी टीमों को पिछले पांच दशकों से विदेशी सिखा पढ़ा रहे हैं। तुलनात्मक अध्ययन करें तो इन दो लोकप्रिय खेलों में बाहरी कोच कुछ खास नहीं कर पाए।भले ही बैडमिंटन, कुश्ती, मुक्केबाजी, निशानेबाजी जैसे खेलों में छुट पुट पदक मिले हैं लेकिन फुटबाल में लुटिया पूरी तरह डुबो दी गई है। 1951 और 1962 में हमारे अपने कोच रहीम की देख रेख में तैयार टीम ने एशियाई खेलों में गोल्ड जीत कर स्वदेशी का दम खम दिखाया था।
जहां तक हॉकी की बात है तो हमारा डंका तब तक बजता रहा जब तक अपने कोच सिखा पढ़ा रहे थे। आठ ओलंपिक गोल्ड भारतीय कोचों द्वारा सिखाए हुनर का पुरस्कार थे। अपनों की देखरेख में अन्य खेलों में भी मान सम्मान बरकरार रहा । लगातार नाकामी के बाद भी विदेशी कोच देश के खेल आकाओं के लाडले बने हुए हैं। लेकिन धीमे सुर में ही सही ,स्वदेशी की मांग उठने लगी है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |