हाल ही के कुछ खेल परिणामों को देखते हुए देश में स्वदेशी कोचों की वापसी को लेकर अभियान सा छिड़ गया है। खासकर , हॉकी और फुटबाल में विदेशी कोचों की अनावश्यक घुसपैठ के बारे में कानाफूसी होने लगी है। हालांकि देश के खिलाड़ियों, कोचों और खेल प्रेमियों में खुल कर बोलने और व्यवस्था को कोसने का साहस नहीं बचा लेकिन कुछ पूर्व खिलाड़ी दबी जुबान में कह रहे हैं कि विदेशियों पर अत्यधिक निर्भरता ठीक नहीं है।
पिछले कुछ दिनों में फुटबाल और महिला हॉकी ने जिस प्रकार का दयनीय प्रदर्शन किया उसे लेकर न सिर्फ खेल प्रेमी हैरान परेशान हैं अपितु कुछ पूर्व खिलाड़ी यहां तक कहने लगे हैं कि विदेशी कोच भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन को नहीं सुधार सकते। भले ही गोरों के पास देने के लिए बहुत कुछ है लेकिन पौधे से पेड़ बन चुके खिलाड़ियों को समझना और उन्हें हालात के अनुरूप ढालना आसान कदापि नहीं है। कारण, हमारे खिलाड़ी पहले अपनों से सीखते है और जब सीनियर वर्ग में पहुंचते हैं तो उन्हें विदेशी कोचों के हवाले कर दिया जाता है।
भारतीय फुटबाल और हॉकी टीमों को पिछले पांच दशकों से विदेशी सिखा पढ़ा रहे हैं। तुलनात्मक अध्ययन करें तो इन दो लोकप्रिय खेलों में बाहरी कोच कुछ खास नहीं कर पाए।भले ही बैडमिंटन, कुश्ती, मुक्केबाजी, निशानेबाजी जैसे खेलों में छुट पुट पदक मिले हैं लेकिन फुटबाल में लुटिया पूरी तरह डुबो दी गई है। 1951 और 1962 में हमारे अपने कोच रहीम की देख रेख में तैयार टीम ने एशियाई खेलों में गोल्ड जीत कर स्वदेशी का दम खम दिखाया था। विश्व स्तर पर भी भारतीय फुटबाल को पहचान दिलाई।
जहां तक हॉकी की बात है तो हमारा डंका तब तक बजता रहा जब तक अपने कोच बागडोर संभाले थे। आठ ओलंपिक गोल्ड अपनों की देखरेख में जीते लेकिन घास के बाद नकली घास के मैदानों के चलन के साथ ही भारतीय हॉकी में नकली कोच अवतरित हुए और वर्षों की अर्जित साख को बट्टा लग गया। टोक्यो ओलंपिक में जीते कांस्य पदक पर इतराने वाली भारतीय हॉकी यह ना भूले कि पेंडिमिक के चलते यूरोपीय टीमें अपने पूरे दमखम से नहीं उतर पाई थीं। तब महिला हॉकी को चौथा स्थान मिला था, जिसकी कलई खुल चुकी है। अमेरिका और जापान जैसी कमजोर टीमों ने महिला हॉकी को ओलंपिक बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
लगातार विफलताओं के बाद भी विदेशी कोच देश के खेल आकाओं के लाडले बने हुए हैं। हैरानी वाली बात यह है कि खेल जानकार और पूर्व चैंपियन मौन साधे हुए हैं। खुल कर कोई भी बोल नहीं पाता। ऐसा क्यों है?
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |