भारतीय महिला हॉकी के इतिहास पुरुष गुरु श्रेष्ठ दोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित और देश को लगभग 80 अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी देने वाले शाहबाद मारकंडा के साई कोच रहे बलदेव सिंह भारतीय महिला हॉकी टीम की नाकामी से क्रुद्ध हैं। उन्हें अब तक विश्वास नहीं हो पा रहा है कि हमारी लड़कियां अमेरिका और जापान से कैसे हार सकती हैं, वो भी अपने घर में अपने दर्शकों के सामने। महिला हॉकी को ऊचाइंया प्रदान करने वाले बलदेव टीम की हार से बहुत दुखी हैं और पूछे जाने पर एक-दो नहीं, दसियों कारण बताते हैं:-
रानी रामपाल की अनदेखी: पूर्व कप्तान रानी रामपाल वर्षों से टीम की प्रमुख सदस्य रही है। टीम की अधिकतर कामयाबियों में उसकी भूमिका बढ़-चढ़ कर रही, लेकिन रानी को नहीं चुना गया, जिसका नतीजा सबके सामने हैं। वह होती, तो नौ-दस पेनल्टी कॉर्नर बेकार नहीं जाते। शूटिंग सर्किल में उसकी उपस्थिति मैच का पासा पलटने वाली होती है। हैरानी वाली बात यह है कि उसने राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में श्रेष्ठ प्रदर्शन किया लेकिन उसे राष्ट्रीय टीम के काबिल नहीं समझा गया।
टीम चयन में धांधली: यदि टीम का चयन ईमानदारी से किया जाता तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता। राज्य विशेष और खास पदाधिकारियों की दखलंदाजी से चुनी गई टीम का यही हश्र होना ही था। कुछ दबंगों ने टीम के चयन में दखल दिया। चूंकि हॉकी इंडिया का अध्यक्ष दिलीप टिर्की सीधा और सरल आदमी है, इसलिए उसकी एक नहीं चली। बेहतर होगा कि दिलीप टिर्की पद त्याग दे।
कोच नाकाम रही: एशियाई खेलों में भारतीय टीम गोल्ड मेडल की दावेदार थी और सीधे ओलम्पिक का टिकट मिल सकता था। लेकिन डच कोच जेनेक शॉपमैन टीम को एकजुट रखने और जीत का मंत्र देने में नाकाम रही। भले ही भारत ने जापान को हराकर कांस्य पदक जीता था लेकिन कोच के फैसले सही होते तो भारत को सीधे ओलम्पिक प्रवेश मिल जाता। बेहतर होता कोच को एशियाड के बाद ही निकाल दिया जाता।
फूट डालो, राज करो: विदेशी कोच वर्षों से फूट डालो और राज करो की राजनीति से अपनी दूकान चला रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, झारखंड, ओडिशा की लड़कियों को आपस में लड़ाकर अपने उल्लू सीधा करने वाले गोरे कोच अब और नहीं चाहिए।
धनराज और हरेंद्र आगे आएं: यदि हरेंद्र महिला टीम के कोच होते, तो भारत ग्वांग्झू में ही ओलम्पिक टिकट पा जाता लेकिन उसकी अनदेखी हो रही है। क्योंकि हॉकी इंडिया में अवसरवादियों की दादागिरी चल रही है। धनराज पिल्ले हॉकी इंडिया के शीर्ष पद पर या चीफ कोच के रूप में प्रभावी हो सकते हैं। दोनों को मौका दिया जाना बेहतर रहेगा। वरना चार साल बाद भी यही हाल हो सकता है।
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |