अक्सर जब कभी भारतीय खेलों के पिछड़ने कि बात आती है तो साधन सुविधाओं कि कमी या अच्छे कोचों का अभाव बड़े कारण बताए जाते हैं। यह भी देखने को मिला है कि जब कभी हमारे खिलाड़ी एशियाड और ओलम्पिक से मुंह लटका कर लौटते हैं तो उनके खेल आका और खुद खिलाडी तरह तरह के बहाने बनाते हैं। लेकिन खेल जानकारों और विशेषज्ञों का एक वर्ग कुछ और कहता है। उनके अनुसार ज्यादातर भारतीय खिलाडी चैम्पियन बनने की उम्र स्कूलों में बिता देते हैं। स्कूल प्रबंधन, खिलाड़ी के अभिभावक और कोच उसे स्कूल से बाहर निकलने ही नहीं देते। वह तब बाहर निकल पाता है जब उसे पूरी तरह चूस लिया जाता है। यह खेल स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफइंडिया(एसजीएफआई) की आँखों के सामने खेला जा रहा है, जोकि भारत में स्कूली खेल आयोजन की मान्य संस्था बताई जाती है, जिसे देश का खेल मंत्रालय कई बार अमान्य करार दे चुका है।
आम तौर पर 17-18 साल की उम्र में विद्यार्थी स्कूल छोड़ देते हैं लेकिन दागी खिलाडी 20 से 22 या और बड़ी उम्र में भी स्कूल की चार दीवारी नहीं टाप पाते। कागजों में उनकी उम्र स्थिर रहती है। यह भी पता चला है कि कुछ खिलाडी छदम आयु प्रमाण पत्र बनवा कर स्कूली खेलों में डटे रहते हैं। इस धोखाधड़ी में स्कूल प्रशासन, अविभावक, कोच और अन्य का सहयोग उन्हें मिलता है। यही खिलाड़ी जब बड़े आयोजनों में भाग लेते हैं तो कहीं नजर नहीं आते, क्योंकि चैम्पियन बनने का दम खम स्कूल की चार दीवारी में छोड़ आते हैं।
बेशक , देश के खेलों को बर्बाद करने में स्कूली खेलों को संचालित करने वाली संस्थाओं का सबसे बड़ा हाथ रहा है। इस संवाददाता ने कई दशक ग्रास रुट खेलों को दिए और पाया कि जब तक देश में स्कूली खेलों को नहीं सुधारा जाता, भावी पीढ़ी के असली दुश्मनों की धर पकड़ नहीं की जाती तो भारतीय खेलों को सुधारना शायद ही संभव हो। राष्ट्रीय स्कूली खेलों के आयोजन के चलते यदि खेल मंत्रालय और खेल संघों के अधिकारी छापामार दस्तों का गठन करें तो भारतीय खेलों का काला चेहरा सबके सामने आ सकता है। लेकिन शायद ऐसा होगा नहीं क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।
दिल्ली, बंगाल, पंजाब, यूपी, महाराष्ट्र, हरियाणा या किसी भी राज्य को जब कभी राष्ट्रीय स्कूली खेलों का आयोजन मिलता है तो मेजबान प्रदेश पदकों की लूट मचाता है। इसलिए क्योंकि उसे स्कूल से बाहर के या बड़ी उम्र के खिलाडियों को उतारने का अधिकार स्वतः ही पा जाता है। जी हाँ, स्कूली खेलों की ठेकेदार एसजीएफआई की करतूतों की सजा यह देश वर्षों से भुगत रहा है। फिलहाल यह संस्था गुटबाजी की शिकार है। दो अलग अलग धड़े अपने स्तर पर स्कूली खेलों के आयोजन का दावा कर रहै हैं| दोनों ने अपने खेल कैलेंडर ज़ारी कर दिए हैं। किसकी चौधराहट चलेगी खेल मंत्रालय को तय करना है।
नीरज चोपड़ा के गोल्ड मैडल पर इतराने वाले देश ने शायद ही कभी यह सोचा हो कि क्यों हम सौ साल तक एक पदक कि इन्तजार करते हैं और क्यों दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 75 सालों में मजबूत खेल तंत्र नहीं बना पाया? जब जड़ें मजबूत नहीं होंगी तो यही हाल होता है। स्कूली खेलों कि मज़बूती ने अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस आदि देशों को दमदार खेल राष्ट्र बनाया है। दुर्भाग्यवश भारतीय स्कूली खेल एसजीएफ आई की लूट और गन्दी राजनीति के शिकार हो कर रह गए हैं। तारीफ़ की बात यह है कि जो खेल दुनिया में कहीं नहीं खेले जाते एसजीएफ आई उनका भी आयोजन करती है। क्या खेल मंत्रालय और देश के खेलों के ठेकेदार स्कूली खेलों को मज़ाक बनने से रोकना चाहेंगे?
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |