खेलों के साथ मीडिया का भद्दा मजाक…

मीडिया

पिछले कुछ सालों से दिन-रात यह राग अलापा जा रहा है कि भारतीय खेलों की तरक्की-प्रगति की रफ्तार तेज हुई है। खासकर ओलम्पिक में क्रमश: छह और सात पदक जीतने के बाद देश की सरकार और खेल महासंघों के मुखिया ताल ठोक कहते मिलेंगे कि भारत खेलों की महाशक्ति बनने जा रहा है।

लेकिन भारतीय मीडिया का चाल-चरित्र कह रहा है कि भारत में खेलों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा। खेलों की चर्चा एशियाड और ओलम्पिक जैसे बड़े आयोजनों पर तो होती है लेकिन जैसे ही ये खेल समाप्त होते हैं तो अपना मीडिया कुछ खास खेलों को छोड़कर बाकी की खबर तक नहीं लेता। क्रिकेट देश के समाचार पत्र, पत्रिकाओं, चैनलों की पहली और एकमात्र खुराक रह गया है। क्रिकेट के राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और यहां तक कि स्थानीय एवं गली-कूचे की खबरों को भारतीय अखबार प्रमुखता के साथ जरूर छापते हैं। इसमें दो राय नहीं है कि क्रिकेट भारत का सबसे लोकप्रिय खेल हैं, जिसे राष्ट्रीय धर्म तक कहा जाने लगा है। लेकिन बाकी खेलों का कसूर क्या है? फुटबॉल विश्व कप, यूरोपीय, लैटिन अमेरिकी और अन्य प्रमुख आयोजनों को देश के समाचार पत्रों व पत्रिकाओं की पसंदीदा खुराक माना जाता है लेकिन फुटबॉल, हॉकी, एथलेटिक्स, बास्केटबॉल, तैराकी, जिम्नास्टिक आदि लोकप्रिय खेलों की राष्ट्रीय और स्थानीय प्रतियोगिताओं के लिए प्रिंट मीडिया जगह क्यों नहीं निकाल पाता?

बेशक, क्रिकेट आम भारतीय का चहेता खेल है और लगातार सफलताओं ने इस खेल को घर-घर का खेल बना दिया है। हर बच्चा बस क्रिकेटर बनना चाहता है। इस मृग मरीचिका में फंसकर ज्यादातर लड़के व लड़कियां बर्बाद हो रहे हैं। बाकी खेलों का प्रशासन भ्रष्ट लोगों के हाथ है लेकिन देश के मीडिया को यह सब दिखाई नहीं देता। वह क्रिकेट प्रेम में बहा जा रहा है। तो फिर ओलम्पिक खेल कहां जाएं ? उनकी खबर कौन लेगा? और हां, अगले ओलम्पिक में क्रिकेट भी शामिल होने जा रहा है। अर्थात बाकी खेलों की खैर नहीं उनकी रही सही उम्मीद भी नहीं बचेगी l

हैरानी बात यह है कि एक ओर हम ओलम्पिक आयोजन के दावे कर रहे हैं तो दूसरी तरफ ज्यादातर खेल देश के प्रिंट मीडिया की प्राथमिकता से बाहर हो चुके हैं। मामला गंभीर है लेकिन सरकार, खेल संघ और मीडिया को जैसे कोई लेना देना नहीं.

Rajender Sajwan Rajender Sajwan,
Senior, Sports Journalist
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