भले ही भारतीय हॉकी ने फिर से जीतना सीख लिया है और लगातार दो ओलम्पिक कांस्य पदक जीतकर हमारे खिलाड़ियों ने देश में हॉकी की वापसी का संदेश दिया है लेकिन धरातल पर जो कुछ चल रहा है उसे देखकर दुख होता है और डर भी लगता है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि जब पचास साल पहले घास के मैदानों को छोड़कर हॉकी एस्ट्रो टर्फ पर अवतरित हुई थी तो सबसे ज्यादा कष्ट एशियाई हॉकी को सहना पड़ा था। हालांकि इस पीड़ा से उबरने में भारतीय हॉकी को सालों लग गए लेकिन आज भी हालात सुधरे नहीं हैं। हालांकि देश के कुछ बड़े शहरों में हॉकी के नकली घास मैदान उपलब्ध हैं लेकिन टर्फ पर खेलने का सौभाग्य कुछ सौ खिलाड़ियों को ही प्राप्त है। तो फिर बाकी खिलाड़ी कहां खेल रहे हैं या खिलाड़ियों की तादाद कम क्यों हो रही है? इस बारे में सोचने की किसी को फुर्सत नहीं है। इन सवालों के जवाब केंद्र सचिवालय मैदान पर खेलने वाले सरकारी कर्मचारी और उनके नौनिहालों से पूछें तो पता चलेगा कि एस्ट्रो टर्फ मैदान खिलाड़ियों की पहुंच से बहुत दूर हैं। आज भी देश के पचास फीसदी खिलाड़ी घास मिट्टी पर खेल रहे हैं
कुछ खिलाड़ियों से बातचीत करने पर पता चला कि देश की राजधानी में छह टर्फ बिछे हैं। मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम, शिवाजी स्टेडियम, चड्ढा स्कूल झिलमिल, सुभाष नगर, घुमन हेड़ा में टर्फ होने के बावजूद क्यों घास के उबर-खाबड़ मैदानों पर खेलना पड़ा रहा है? इस बारे में कुछ कोचों, खिलाड़ियों और हॉकी प्रेमियों से बात हुई तो ज्यादातर ने देश के कर्णधारों, हॉकी इंडिया और सरकारी मशीनरी को बुरा-भला कहा। उनके अनुसार, भारत में हॉकी कुछ एक शहरों तक सिमट गई है। खेलने के मैदान बंजर पड़े हैं। जिन स्टेडियमों पर कभी बड़े-बड़े आयोजन होते थे उनका किराया-भाड़ा चुकाना स्थानीय क्लबों और संस्थानों के बस की बात नहीं रही। मजबूरन हॉकी आज भी घास पर खेली जा रही है। जब कभी कोई बड़ा आयोजन होता है दर्शकों की संख्या नगण्य होती है।
कभी दिल्ली का शिवाजी स्टेडियम भारतीय हॉकी का गढ़ था आज नगर पालिका का यह स्टेडियम वीरान पड़ा है या आम खिलाड़ी की पकड़ से बाहर हो चुका है। मेजर ध्यानचंद स्टेडियम का हाल तो और भी बुरा है जहां भारत सरकार के गृह मंत्रालय का कब्जा होने के बाद से हॉकी की गतिविधियों को नुकसान पहुंचा है। दो-तीन शहरों को छोड़ पूरे देश में हॉकी की यही हालत है। खिलाड़ी हैरान परेशान हैं और घास मिट्टी के ऊबड़ खाबड़ मैदानों पर खेलने के लिए विवश हैं।
Rajendar Sajwan
Rajender Sajwan, Senior, Sports Journalist |